शनिवार, 4 अप्रैल 2015

सुभाषित

त्यजेदेकं कुलस्यार्थे, ग्रामस्यार्थे कुलं त्यजेत्।
ग्रामं जनपदस्यार्थे, आत्मार्थे पृथिव्यां त्यजेत्॥
-पंचतंत्र

भावार्थ- कुल के लिए व्यक्ति को, समाज के लिए कुल को,राष्ट्र के लिए समाज को और आत्मा के लिए सारी दुनिया को त्याग देना चाहिए।

रविवार, 29 मार्च 2015

कृत्रिमता छोडें

मैं अनेक लोगों से मिला हूं, मिलकर मैंने पाया कि अधिकांश व्यक्ति जो दिखते हैं वो होते नहीं। कुछ बहुत विनम्रता का दिखावा करते हैं, कुछ निरंहारिता का, वहीं कुछ धार्मिकता का, पर जब उनके व्यक्तित्व की परत को ज़रा सा कुरेदा जाए तो ठीक विपरीत बात नज़र आती है। ओशो ऐसे व्यक्तियों के संबंध अंग्रेजी का शब्द “स्किन डीप” प्रयोग करते हैं, जिसका अर्थ होता छिछला या त्वचा की तरह पतला। मेरे देखे आप जो हैं वह पूरी प्रामाणिकता से दिखें क्योंकि अभ्यांतर के परिवर्तन से ही बाह्यांतर का परिवर्तन संभव है। मैं फ़ूलों में छिपे कांटो की अपेक्षा विशुद्ध कांटो को अधिक महत्व देता हूं। कांटों का भी अपना सौंदर्य है, उसकी भी अपनी उपयोगिता है। उसे भी गुलाब का सृजन करने वाले ईश्वर ने ही बनाया है और ईश्वर की बनाई कोई भी वस्तु बुरी नहीं होती, बुरी सिर्फ़ कृत्रिमता होती है। अतः मौलिक और प्रामाणिक बनें।

-ज्योतिर्विद हेमन्त रिछारिया

गुरुवार, 26 मार्च 2015

त्रि-आयामी है “ज्योतिष”

ज्योतिर्विद हेमन्त रिछारिया
 ज्योतिषियों से एक प्रश्न अक्सर पूछा जाता है कि “जब एक ही समय पर विश्व में कई बच्चे जन्म लेते हैं तो उनकी जन्मकुण्डली एक होने के बावजूद उनका जीवन भिन्न कैसे होता है?” ज्योतिष पर विश्वास नहीं करने वालों के लिए यह प्रश्न ब्रह्मास्त्र की तरह है। यह प्रश्न बड़े से बड़े ज्योतिष के जानकार की प्रतिष्ठा को ध्वस्त करने की सामर्थ्य रखता है। जब इस ब्रह्मास्त्र रूपी प्रश्न का प्रहार मुझ पर किया गया तो मैंने ढाल के स्थान पर ज्योतिष शास्त्र रूपी अस्त्र से ही इसे काटना श्रेयस्कर समझा। इस प्रश्न को लेकर मैंने बहुत अनुसंधान किया, कई वैज्ञानिकों के ब्रह्माण्ड विषयक अनुसंधान के निष्कर्षों की पड़ताल की, कई सनातन ग्रंथों को खंगाला और अपने कुछ वर्षों के ज्योतिषीय अनुभव को इसमें समावेशित करते हुए मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि किसी जातक के जीवन निर्धारण में केवल जन्म-समय ही नहीं अपितु गर्भाधान-समय और उसके प्रारब्ध (पूर्व संचित कर्म) की भी बहुत महत्वपूर्ण भूमिका होती है। इस प्रकार ज्योतिष तीन आयामों पर आधारित है, ये तीन आयाम हैं-१. प्रारब्ध २. गर्भाधान ३.जन्म। इन्हीं तीन महत्वपूर्ण आयामों अर्थात् जन्म-समय, गर्भाधान-समय एवं प्रारब्ध के समेकित प्रभाव से ही किसी जातक का संपूर्ण जीवन संचालित होता है। किसी जातक की जन्मपत्रिका के निर्माण में जो सर्वाधिक महत्वपूर्ण तत्व है; वह है- समय। अब जन्म-समय को लेकर भी ज्योतिषाचार्यों में मतभेद है, कुछ विद्वान शिशु के रोने को ही सही मानते हैं, वहीं कुछ नाल-विच्छेदन के समय को सही ठहराते हैं, खैर; यहां हमारा मुद्दा जन्म-समय नहीं है। किसी भी जातक की जन्मपत्रिका के निर्माण के लिए उसके जन्म का समय ज्ञात होना अति-आवश्यक है। अब जन्मसमय तो ज्ञात किया जा सकता है किंतु गर्भाधान का समय ज्ञात नहीं किया जा सकता इसीलिए हमारे शास्त्रों में “गर्भाधान” संस्कार के द्वारा उस समय को बहुत सीमा तक ज्ञात करने व्यवस्था  है। यह अब वैज्ञानिक अनुसंधानों से स्पष्ट हो चुका है कि माता-पिता का पूर्ण प्रभाव बच्चे पर पड़ता है, विशेषकर मां का, क्योंकि बच्चा मां के ही पेट नौ माह तक आश्रय पाता है। आजकल सोनोग्राफ़ी और डीएनए जैसी तकनीक इस बात को प्रमाणित करती हैं। अतः जिस समय एक दंपत्ति गर्भाधान कर रहे होते हैं उस समय ब्रह्माण्ड में नक्षत्रों की व्यवस्था और ग्रहस्थितियां भी होने वाले बच्चे पर पूर्ण प्रभाव डालती हैं। इस महत्वपूर्ण तथ्य को ध्यान में रखते हुए हमारे शास्त्रों में “गर्भाधान” के मुर्हूत की व्यवस्था है। गर्भाधान का दिन, समय,तिथि,वार,नक्षत्र,चंद्र स्थिति, दंपत्तियों की कुण्डलियों का ग्रह-गोचर आदि सभी बातों का गहनता से परीक्षण करने के उपरान्त ही “गर्भाधान” का मुर्हूत निकाला जाता है। अब यदि किन्हीं जातकों का जन्म इस समान त्रिआयामी व्यवस्था में होता है (जो असंभव है) तो उनका जीवन भी ठीक एक जैसा ही होगा इसमें तनिक भी संदेह नहीं है। यहां ध्यान देने योग्य बात यह है कि हमें इन तीन आयामों में से केवल एक ही आयाम अर्थात् जन्म-समय ज्ञात होता है, दूसरा आयाम अर्थात् गर्भाधान-समय हमें सामान्यतः ज्ञात नहीं होता किंतु उसे ज्ञात किया जा सकता है परन्तु तीसरा आयाम अर्थात् प्रारब्ध ना तो हमें ज्ञात होता है और ना ही सामान्यतः उसे ज्ञात किया जा सकता है इसलिए इस समूचे विश्व में एक ही समय जन्म लेने वाले व्यक्तियों का जीवन एक-दूसरे से भिन्न पाया जाता है। मेरे देखे ज्योतिष मनुष्य के भविष्य को ज्ञात करने की पद्धति का नाम है, ये पद्धतियां भिन्न हो सकती हैं। इन पद्धतियों को समय के साथ अद्यतन(अपडेट) करने की भी आवश्यकता है। एक योगी भी किसी व्यक्ति के बारे उतनी ही सटीक भविष्यवाणी कर सकता है जितनी एक जन्मपत्रिका देखने वाला ज्योतिषी या एक हस्तरेखा विशेषज्ञ कर सकता है और यह भी संभव है कि इन तीनों में योगी सर्वाधिक प्रामाणिक साबित हो। “ज्योतिष” एक समुद्र की भांति अथाह है इसमें जितना गहरा उतरेंगे आगे बढ़ने की संभावनाएं भी उतनी ही बढ़ती जाएंगी। जब तक भविष्य है तब तक ज्योतिष भी है। अतः ज्योतिष के संबंध में क्षुद्र एवं संकुचित दृष्टिकोण अपनाकर केवल अपने अहं की तुष्टि के लिए प्रश्न उठाने के स्थान पर इसके वास्तविक विराट स्वरूप को समझकर जीवन में इसकी महत्ता स्वीकार करना अपेक्षाकृत अधिक लाभप्रद है।

-ज्योतिर्विद हेमन्त रिछारिया

रविवार, 15 मार्च 2015

फ़ूलों में भी है संवेदनाएं

एक दिन मेरे मित्र जो श्रीविद्या के साधक हैं वे ढेर सारे पलाश के फ़ूलों से भरी थैली (जिसमें कुछ अधखिली कलियां भी शामिल थीं) लिए मुझसे मिलने आए। मैंने जब इतने फ़ूलों का प्रायोजन उनसे पूछा तो कहने लगे कि इन फ़ूलों से भगवती का अर्चन करूंगा। मैंने पुनः पूछा कि ये कितने फ़ूल हैं? उन्होंने उत्तर दिया कि-सवा लाख! ये सुनते ही मैं चौंक पड़ा। मैंने उनसे कहा कि आपने सिर्फ़ अपने अर्चन के लिए प्रकृति का कितना नुकसान कर दिया, आखिर प्रकृति भी तो परमात्मा का ही अंग है। इसे नुकसान पहुंचाना परमात्मा को पीड़ा पहुंचाना है, मेरे देखे यह उचित नहीं है। चूंकि उन्होंने दिन भर बड़ा अथक परिश्रम करके इन फ़ूलों को तोड़ा था और स्वभाव से वे पंडित थे सो उन्होंने मेरी इस बात का कड़ा विरोध किया। वो मुझे समझाने लगे कि फ़ूल तो ईश्वर पर चढ़ाने के लिए ही होते हैं। मैंने कहा आपको नहीं लगता कि डाल पर खिले फ़ूल पहले ही प्रकृति ने ईश्वर पर चढ़ा दिए अब और क्या चढ़ाना? और चढ़ाना ही है तो डाल से गिरे हुए फ़ूलों को चुनकर चढ़ाओं किंतु शास्त्रों में इस प्रकार की भ्रामक बातें लिखी हैं कि सवा लाख फ़ूल चढ़ाने से यह होगा, सवा लाख बेलपत्र चढ़ाने से वह होगा सो सब निकल पड़ते है पर्यावरण को हानि पहुंचाने। इस पर वे कहने लगे क्या भगवती पर फ़ूल नहीं चढ़ाएं? प्रत्युत्तर में मैंने कहा कि कोई फ़ूल का पौधा रोपित कर दो जब इसमें सवा लाख फ़ूल आएंगे तो आपका अर्चन पूर्ण हो जाएगा। इसी प्रकार की भ्रामक बातों के कारण ही हमारे धर्म पर कटाक्ष करने का अवसर अक्सर लोगों को मिल जाता है। मेरे देखे संख्या नहीं भाव महत्वपूर्ण है। यदि प्रेमपूर्ण ह्रदय से मात्र एक पांखुरी अर्पित कर दी जाए तो सवा लाख क्या सवा अरब के बराबर हो जाती है। आपने सुना है जब भगवान कृष्ण को उनकी रानियों ने अपने आभूषणों से तौलना चाहा तो वे नहीं तुले जब एक तुलसी दल पलड़े पर रखा तब भगवान आसानी से तुल गए। मगर पंडित यदि शास्त्रों से मुक्त हो जाए तो संत हो जाए। शास्त्रों में काम की बातें थोड़ी हैं और जो हैं उन्हें समझना और भी कठिन। भारत के प्रसिद्ध वैज्ञानिक श्री जगदीशचंद्र बोस ने क्रैस्कोग्राफ़ नामक यंत्र बनाकर एक अनुसंधान किया जिसमें उन्होंने यह सिद्ध किया कि पेड़-पौधों में भी संवेदनशील स्नायु तंत्र होता है और उनका जीवन भी विभिन्न भावनाओं से युक्त होता है। प्रेम,घृणा,भय,सुख,दुःख,आनन्द,मूर्छा के प्रति असंख्य प्रकार की प्रतिक्रियाओं की भावानुभूति जिस प्रकार सब प्राणियों में होती है उसी प्रकार पेड़-पौधों में भी होती है। सनातन धर्म ने बड़ी मूल्यवान पहल की जो पत्थर की ईश्वर की प्रतिमा बनाई। उसके पीछे उद्देश्य यह था हमारी दृष्टि इतनी संवेदनशील हो जाए कि पाषाण में भी सजीव ईश्वर का दर्शन कर सके किंतु अभी तक कोमल फ़ूलों में भी जिन लोगों को संवेदना नज़र नहीं आ रही वे क्या पाषाण में इसे देख पाने में समर्थ होंगे इसमें मुझे संदेह है।

-ज्योतिर्विद हेमन्त रिछारिया

गुरुवार, 15 जनवरी 2015

“दान या निवेश....?”

मेरे देखे यदि कोई भी कर्म चाहे वो दान हो; सेवा हो या फिर भक्ति, यदि फ़ल की इच्छा और आकांक्षा से किया जा रहा है तो वह शुद्ध “निवेश” है। फल की अपेक्षा करना व्यापारिक व सांसारिक दृष्टि है, आध्यात्मिक नहीं। जिस व्यक्ति को देने में ही आनन्द महसूस होता है उसी का दान का सार्थक है।

शनिवार, 3 जनवरी 2015

सात शरीर व सात चक्र

ईश्वर,परमात्मा,ब्रह्म,तत्व(जो भी नाम आप देना चाहें) से साक्षात्कार के दो ही मार्ग हैं-ध्यान और प्रेम(भक्ति)। शेष सब सामाजिक व्यवस्थाएं मात्र हैं। हमारे देश में बड़े-बड़े ध्यान योगी और भक्त हुए हैं। जिन्होंने ब्रह्म साक्षात्कार किया है। सभी ने अपने-अपने अनुभव अपने शिष्यों को बताएं भी है। सभी योगी इस बात पर एकमत है कि मानव का स्थूल शरीर ही एकमात्र शरीर नहीं है अन्य शरीर भी हैं। कोई तीन शरीरों की बात कहते हैं, कोई पांच तो कोई सात। आचार्य रजनीश “ओशो” सात शरीरों की चर्चा करते हैं। यह ज़्यादा सटीक मालूम पड़ता हैं क्योंकि कुण्डलिनी जागरण के साधक इस बात को जानते हैं कि कुण्डलिनी सात चक्रों से होकर सहस्रार तक पहुंचती हैं। “ओशो” के अनुसार हर शरीर एक चक्र से संबंधित होता है। ये सात शरीर और सात चक्र हैं-
१. स्थूल शरीर (फ़िज़िकल बाडी)- मूलाधार चक्र
२. आकाश या भाव शरीर (इथरिक बाडी)-स्वाधिष्ठान चक्र
३. सूक्ष्म या कारण शरीर (एस्ट्रल बाडी)-मणिपुर चक्र
४. मनस शरीर (मेंटल बाडी)-अनाहत चक्र
५. आत्मिक शरीर (स्प्रिचुअल बाडी)-विशुद्ध चक्र
६. ब्रह्म शरीर (कास्मिक बाडी)-आज्ञा चक्र
७. निर्वाण शरीर (बाडीलेस बाडी)-सहस्रार
 सामान्य मृत्यु में केवल हमारा स्थूल शरीर ही नष्ट होता है। शेष छः शरीर बचे रहते हैं जिनसे जीवात्मा अपनी वासनानुसार अगला जन्म प्राप्त करती है किंतु महामृत्यु में सभी छः शरीर नष्ट हो जाते हैं फ़िर पुनरागमन संभव नहीं होता। इसे ही अलग-अलग पंथों में मोक्ष,निर्वाण,कैवल्य कहा जाता है।

वेद

विश्व के प्राचीनतम ग्रंथ है वेद। वेद शब्द का अर्थ है-ज्ञान। चार वेद हैं-ऋग्वेद,यजुर्वेद,सामवेद और अथर्ववेद।
ऋग्वेद में देवताओं के आवाहन और स्तुति संबंधी पद्यात्मक मंत्र है जिन्हें “ऋचा” कहते हैं। यजुर्वेद में मुख्यतः यज्ञ की आहुति के समय बोले जाने वाले मंत्र हैं जो “यजुष” कहलाते हैं। सामवेद में यज्ञ के समय सस्वर गाये जाने वाले मंत्र हैं। अथर्ववेद में अनेक विद्याओं और ज्ञान-विज्ञान से संबंधित मंत्र हैं। मंत्र संख्या की दृष्टि से “ऋग्वेद” सबसे बड़ा वेद है। ऋग्वेद में दस (१०) मण्डल हैं। ऋग्वेद में एक हजार पांच सौ अस्सी (१०५८०) ऋचाएं हैं। ऋ़ग्वेद का प्रथम मंत्र अग्नि देवता के लिए है। ऋग्वेद की सर्वाधिक ऋचाएं त्रिष्टुप छंद में हैं जिनकी संख्या ४,२५१ हैं। इसके अतिरिक्त गायत्री,जगती और अनुष्टुप छंद में भी पर्याप्त ऋचाएं हैं।

शुक्रवार, 2 जनवरी 2015

भारतीय सम्प्रदाय

सनातन भारतीय पूजा पद्धति के दो पंथ हैं-

१. शैव २. वैष्णव 3.“शाक्त”

जैसा कि नाम से स्पष्ट है भगवान शिव को अपना आराध्य मानने वाले “शैव” और भगवान विष्णु को अपना आराध्य मानने वाले “वैष्णव”।
“वैष्णव” पंथ के चार प्रमुख सम्प्रदाय हैं-
१. रामानुजाचार्य द्वारा स्थापित “श्री” सम्प्रदाय- जो “विशिष्टाद्वैत” मत को मान्यता देता है।
२. निम्बार्काचार्य द्वारा स्थापित “हंस” सम्प्रदाय- जो “द्वैताद्वैत” मत को मानता है।
३. मध्वाचार्य द्वारा स्थापित “ब्रह्म या गौड़ीय” सम्प्रदाय- जो “द्वैतवादी” है।
४. वल्लभाचार्य द्वारा स्थापित “वल्लभ” सम्प्रदाय- जो “शुद्धाद्वैत” को मान्यता प्रदान करता है।
किंतु तांत्रिक दृष्टि से वैष्णवों के १० सम्प्रदाय माने गए हैं-
१. वैखानस २.राधावल्लभ ३.गोकुलेश ४.वृन्दावनी ५.रामानन्दी ६.हरिव्यासी ७.निम्बार्क ८.भागवत ९.पान्चरात्र १०.वीर वैष्णव।
“शैव” पंथ के अन्तर्गत निम्न सम्प्रदाय प्रमुख हैं-
१. शैव २.वीर शैव ३.माहेश्वर ४.पाशुपत ५.लिंगायत ६.गाणपत्य।

भगवती देवी की आराधना करने वाले साधक  “शाक्त”  सम्प्रदाय के अंतर्गत आते हैं।