शनिवार, 15 अक्तूबर 2016

अभय

अभयं मित्रादभयममित्रादभयमं ज्ञातादभयं परोक्षात्।
अभयं नक्तमभयं दिवा न: सर्वा आशामममित्र भवन्तु॥
-अर्थववेद, १९.१५.६
अर्थ-मुझे मित्र या शत्रु का भय न हो, मुझे ज्ञात और अज्ञात का भी भय न हो, रात और दिन का भी भय न हो। पूर्व,पश्चिम,उत्तर,दक्षिण सभी दिशाएँ मेरे प्रति मित्रवत् भाव रखें। 

गुरु वन्दना

राम तजूं पै गुरु न बिसारूं।
गुरु को सम हरि को न निहारूं॥
हरि ने जनम दियो जग माहीं।
गुरु ने आवागमन छुटाहीं॥
हरि ने पांच चोर दिए साथा।
गुरु ने लई छुटाय अनाथा॥
हरि ने कुटुम्ब जाल में गेरी।
गुरु ने काटी ममता बेरी॥
हरि ने रोग भोग उरझायौ।
गुरु जोगी कर सबै छुटायौ॥
हरि ने कर्म धर्म भरमायौ।
गुरु ने आतम रूप लखायौ॥
हरि ने मोसूं ने आप छिपायौ।
गुरु दीपक दै ताहि दिखायौ॥
फिर हरि बंधि मुक्ति गति लाए।
गुरु ने सबही भरम मिटाए॥
चरणदास पर तन मन वारूं।
गुरु न तजूं हरि को तज डारूं॥
- संत सहजोबाई

शुक्रवार, 14 अक्तूबर 2016

संतन को कहां सीकरी सों काम ?

संतन को कहां सीकरी सों काम ?
आवत जात पनहियाँ टूटी, बिसरि गयो हरि नाम।।
जिनको मुख देखे दुख उपजत, तिनको करिबे परी सलाम।।
"कुम्भनदास" लाल गिरिधर बिनु और सबै बेकाम।।
-कुम्भनदास
कुम्भनदास(१४६८-१५८३) अष्टछाप के प्रसिद्ध कवि थे। ये परमानंददास जी के समकालीन थे। कुम्भनदास का चरित "चौरासी वैष्णवन की वार्ता" के अनुसार संकलित किया जाता है। कुम्भनदास ब्रज में गोवर्धन पर्वत से कुछ दूर "जमुनावतौ" नामक गाँव में रहा करते थे। उनके घर में खेती-बाड़ी होती थी। अपने गाँव से वे पारसोली चन्द्रसरोवर होकर श्रीनाथ जी के मन्दिर में कीर्तन करने जाते थे। उनका जन्म गौरवा क्षत्रिय कुल में हुआ था। कुम्भनदास के सात पुत्र थे, जिनमें चतुर्भजदास को छोड़कर अन्य सभी कृषि कर्म में लगे रहते थे। उन्होंने १४९२ ई० में महाप्रभु वल्लभाचार्य से दीक्षा ली थी। वे पूरी तरह से विरक्त और धन, मान, मर्यादा की इच्छा से कोसों दूर थे। एक बार अकबर बादशाह के बुलाने पर इन्हें फतेहपुर सीकरी जाना पड़ा जहाँ इनका बड़ा सम्मान हुआ। पर इसका इन्हें बराबर खेद ही रहा, जैसा कि इनके उपर्युक्त पद से व्यंजित होता है।

अष्टछाप के कवि-
१.कुम्भनदास २.कृष्णदास ३.गोविन्दस्वामी ४. चतुर्भुजदास ५.छीतस्वामी ६.नन्ददास ७.परमानन्द दास ८. सूरदास

काफ़िर हैं वो जो बन्दे नहीं हैं इस "लाम" के...

एक बार मुगल बादशाह शाहजहाँ ने दिल्ली में एक विराट मुशायरे का आयोजन किया। उसमे मुस्लिम ही नही अपितु हिन्दू कवियों ने भी भाग लिया। सर्वप्रथम गजलों एवं शेरों-सायरी का कार्यक्रम हुआ,पश्चात "समस्या-पूर्ति"का। 'समस्या-पूर्ति में कोई कवि स्व रचित एक पंक्ति अन्य कवियों को सुनाता हैं तथा उनसे उस पंक्ति से सन्दर्भ जमाते हुए अन्य पंक्तियाँ कहने का आह्वान करता हैं। एक मुस्लिम कवि ने 'समस्या-पूर्ति' के लिए निम्न पंक्ति कही-
"काफ़िर हैं वो, जो बंदे नही इस्लाम के"।
स्पष्ट रूप से संकेत हिंदूओ की ओर था। और उन्हें ही समस्या का समाधान करना था।
पंक्ति सुनकर जहाँ मुस्लिम कवियो में ख़ुशी की लहर फैल गई, वही हिन्दू कुछ दुविधा में पड़ गये। उनके द्वारा समस्या-पूर्ति न करने से इस्लाम धर्म के अनुयायी न होने से वे काफ़िर सिद्ध होते थे। ये जानबूझ कर किया गया अपमान था। कुछ हिन्दू कवि मन ही मन बौखला गये, कि कवि जगन्नाथ पंडित उठ खड़े हुए और ऊँचे स्वर में बोले--
इस "लाम" के मानिंद हैं,गेसू मेरे घनश्याम के।
काफ़िर हैं वो, जो बन्दे नहीं इस"लाम" के।।
यह सुनते ही उपस्थित हिन्दू जनसमूह ने बेहद प्रसन्न होकर तालियाँ बजना आरंभ कर दिया,क्योंकि पासा पलट गया था और उस मुस्लिम कवि को लेने के देने पड़ गये थे।
उपर्युक्त पंक्ति का भावार्थ निम्न था-"मेरे कृष्ण के बाल (गेसू) उर्दू अक्षर 'लाम 'की तरह तिरछे हैं। इस दुनिया में उनके इन बालों के जो भक्त नहीं,वे काफ़िर हैं।"
श्री कृष्ण के घुँघराले बाल हैं और उर्दू के अक्षर लाम का आकार घुँघराले बालों जैसा ही होता हैं।"

*विशेष- उर्दू में "ल" अक्षर को लाम कहा जाता है और "लाम"  ل   के आकार का होता है कृष्ण के बाल भी इसी तरह मुड़े हुए थे.

गुरुवार, 13 अक्तूबर 2016

होशपूर्ण जीवन धार्मिकता का लक्षण है

एक बार मैंने कार में बैठे एक शख़्स को देखा जो गेरूए रंग का कुर्ता पहने हुए था; कुर्ते  पर "ॐ" और गायत्री मन्त्र अंकित था। अगले ही क्षण उसने अपना हाथ बाहर निकाला और अंगुलियों में दबी सिगरेट का गुल भूमि पर गिरा दिया । मैंने सोचा हम कितनी मूर्च्छा; कितनी बेहोशी में अपना जीवन जीते हैं यह इसका छोटा सा उदाहरण मात्र है। मेरे देखे होश एकमात्र धार्मिकता का लक्षण है और होशपूर्ण व्यक्ति ही धार्मिक है। बेहोशी; मूर्च्छा अधार्मिकता है। हम सब दिन के चौबीसों घंटे बेहोशी में जी रहे हैं, बिल्कुल यन्त्रवत। इसीलिए समाज में इतनी अधार्मिकता है क्योंकि धार्मिक कृत्य भी बेहोशी में ही किए जा रहे हैं। यदि होशपूर्वक जीवन जाए तो मुक्ति हो जाती है। मैं पूर्ण विश्वास से कहता हूं कि होशपूर्वक यदि पापकर्म भी कर लिया जाए तो पाप से मुक्ति हो जाती है क्योंकि पापकर्म होते ही तब है जब व्यक्ति मूर्च्छित होता है, जागृति और पाप का सम्बन्ध है ही नहीं, ठीक उसी प्रकार जैसे अन्धकार और दीपक का। मूर्च्छा अन्धकार है और होश जागृति; जागरण। अभी-अभी नवरात्र का पर्व सम्पन्न हुआ है इसमें कई देवी पण्डालों में जाने का अवसर मिला वहां जो पूजा-पाठ करने वाले लोग थे उन्हें अन्य दिनों में भी कार्य करते देखा था, महद्आश्चर्य था...इतनी श्रद्धा, इतनी भक्ति, प्रणाम करने को मन किया किन्तु उन्हीं लोगों के कार्य नवरात्र समाप्त होते ही बिल्कुल परिवर्तित हो गये! कृत्रिमता धार्मिकता का लक्षण नहीं है। मेरे लिए होश का अर्थ है जीवन में प्रतिपल परमात्मा की मौजूदगी; उसके सामीप्य की अनुभूति करना। इस प्रकार जीवन जीना जैसे परमात्मा प्रतिपल आपके साथ, आपके निकट है। बस इतना सा होश सध जाए जीवन परिवर्तित हो जाता है। आज हमारे जीवन में कहीं भी परमात्मा की उपस्थिति का अहसास या आभास दिखाई नहीं देता तभी तो समाज में इतनी अधार्मिकता और मानव के कर्मों में इतना भ्रष्टाचार है। हमने परमात्मा को अपने अहंकार की तुष्टि का साधन मात्र बनाकर रख दिया है। मेरे देखे इस जगत् में परमात्मा ही एकमात्र साध्य है। जिसने साध्य को ही साधन बना लिया उससे भला क्या आशा की जा सकती है। हमने परमात्मा को एक सजावट की वस्तु की तरह अपने जीवन में सजा रखा है। उसके सामने हम मज़े से स्वच्छंद होकर वह सब करते हैं जो हमें रुचता है, इस बात की तनिक भी चिन्ता नहीं करते कि ईश्वर को क्या पसन्द है। ईश्वर के सामने झूठ बोलते हैं; छल-कपट करते हैं; लालच करते हैं; ईर्ष्या करते हैं; कुदृष्टि डालते हैं और सबसे बड़ा अपराध प्रतिपल अपने "मैं" के पोषण और दूसरों के शोषण में लगे रहते हैं। मेरे देखे बस एक होश सध जाए फिर किसी पूजा-पाठ किसी कर्मकाण्ड की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती होशपूर्वक जो किया जाता है वह पूजा बन जाता है, जो बोला जाता वह शास्त्र बन जाता है। अत: अपनी मूर्च्छा को तोड़ने का प्रयास करें और होशपूर्ण जीवन की ओर एक कदम बढ़ाएं। परमात्मा प्रतिपल आपके साथ है और सदैव रहेगा।
-ज्योतिर्विद पं. हेमन्त रिछारिया

धम्मपद सूत्र

कुम्भकूपं कायमिमं विदित्वा नगरूपमं चित्तमिदंठपेत्वा।
योजेथ मारंपंचायुधेन जितं च रक्खे अनिवेसिनोसिया॥
-धम्मपद (चित्तवग्ग...८)
अर्थ- हे योगीगण! क्षणभंगी देह को घट के समान मानकर तथा अपने मन को नगर के समान जानकर प्रज्ञा शस्त्र से संसार; शत्रु कामदेव के साथ घोर युद्ध करे। जीती हुई नवीन समाधि का सावधानी से प्रतिपालन करो। परन्तु उस समाधि में आसक्त न हो।

न परेसं विलोमानि न परेसं कताकतं।
अत्त्नोव अवेक्खेय्य कतानि अकतानि च ॥
-धम्मपद (पुप्फवग्ग...६)
अर्थ- दूसरों के पाप कर्म को न देखना, दूसरों का किया हुआ कर्म और न किये हुए कर्म का भी विचार नहीं करना चाहिये। अपने किये हुए कर्म और न किये हुए कर्म का ही विचार करना चाहिये।

यथापि रुचिरं पुप्फं वण्णवन्तं अगन्धकं।
एवं सुभासिता वाचा अफला होति अकृव्वतो॥
-धम्मपद (पुप्फवग्ग....७)
अर्थ- जैसे मनोहारी फूल सुगन्धि के बिना निष्प्रयोजन एवं अनुपयोगी होता है, वैसे सदुपदेश भी उत्तम आचरण एवं सद्व्यवहार के बिना निष्फल हो जाता है।

यथापि रुचिरं पुप्फं वण्णवतं सगन्धकं।
एवं सुभासिता वाचा सफला होति कुव्वतो॥
-धम्मपद (पुप्फवग्ग....८)
अर्थ-जैसे मनोहारी फूल में सुगन्ध व्याप्त होने से वह सबका आदरणीय होता है, वैसे सदुपदेश भी उत्तम आचरण करने से सफल होता है।

न पुप्फगन्धो पटिवातमेति न चन्दनं तग्गरमल्लिका या।
सतं च गंधो पटिवातमेति सब्बा दिसा सप्पूरिसो पवायति॥
-धम्मपद (पुप्फवग्ग....१०)
अर्थ-चन्दन,तगर और मल्लिका इत्यादि फूलों की सुगन्ध वायु से विपरीत नहीं जा सकती लेकिन सज्जनों का यश व कीर्ति वायु की गति के विपरीत सब दिशा में फैलता है।

दीघा जागरतो रत्ति दीघं सन्तस्स योजनं।
दीघो बालानं संसारो सद्धम्मं अविजानतं॥
-धम्मपद (बालवग्ग...१)
अर्थ-जागने वाले व्यक्ति के लिये रात्रि बड़ी मालूम होती है। थके हुए यात्री के लिए कम दूरी का मार्ग भी बहुत दूर मालूम होता है, वैसे ही मूर्खों के लिये संसारयात्रा बड़ी कठिन होती है।

चरंचे नाधिगच्छेय्य सेय्यं सदिसमत्तनो।
एक चरियं दल्हं कयिरा नत्थि वाले सहायता॥
-धम्मपद (बालवग्ग...२)
अर्थ-अपने समान या अपने से बढ़कर श्रेष्ठ मित्र की खोज करो। यदि न मिले तो अकेले ही दृढ़ता से विचरो, क्योंकि दुष्टजनों से मित्रता ठीक नहीं रहती।

योबालो मंचति बाल्यं पण्डितो वापि तेन सो।
बालो च पण्डितमानी स वे बालोति वुच्चति॥
-धम्मपद (बालवग्ग...४)
अर्थ-जो मूर्ख व्यक्ति अपनी मूर्खता को जानता है, वह पण्डित है। जो मूर्ख अपने को पण्डित मानता है, वही महामूर्ख है।

भीड़ नहीं आनन्द हो कसौटी

मुझे यदा-कदा अनेक महापुरूषों,कथावाचकों व विद्वानों से भेंट का सुअवसर प्राप्त होता ही रहता है। क्षेत्र की समानता के कारण अक्सर मुलाकातें निजी हो जाया करती हैं। मैंने इन मुलाकातों में पाया है कि आजकल भीड़ व प्रचार विद्वत्ता की कसौटी बनता जा रहा है। ये विद्वत्तजन अपने निजी पलों में इन्हीं दो मुद्दों पर बातचीत करते नज़र आते हैं। उन्हें इस बात की महती चिन्ता रहती है कि उनकी कथा में भीड़ अन्य कथावाचकों की अपेक्षा कहीं कम तो नहीं हो रही या फ़लां व्यक्ति का कार्यक्रम वे केवल इस आधार पर असफ़ल मान लेते हैं कि वहां जनता की भीड़ कम थी। मुझे मन ही मन बड़ा आश्चर्य होता है कि भला भीड़ कैसे किसी धार्मिक कार्यक्रम की सफ़लता या असफ़लता की कसौटी हो सकती है। धार्मिक आयोजनों की सफ़लता की कसौटी तो आनन्द होना चाहिए। यदि एक व्यक्ति भी धार्मिक आयोजन में आनन्दित और प्रभु प्रेम में निमग्न हो गया तो आयोजन सफ़ल हो गया। मेरे देखे भीड़ की चिन्ता तो व्यापारी व दुकानदार करते हैं सन्त नहीं, यदि आप किसी ऐसे तथाकथित सन्त या कथावाचक को भीड़ की चिन्ता करते देखें तो समझ लीजिए आप सन्त के धोखे में किसी दुकानदार के पास पहुंच गए हैं। परमात्मा तक को विक्रय की वस्तु बना लेने वाले ये व्यापारीगण भला आपको क्या परमात्मा की प्राप्ति का मार्ग दिखा पाएंगे। अत: आध्यात्म की राह में तो बस प्रभु को ही अपना सारथि बना लीजिए फ़िर सब अपने से हो जाता है। वही आपको गुरू से भी मिलाएगा और मज़े की बात यह है कि फ़िर वही उस गुरू के माध्यम से स्वयं अपने आपको अर्थात गोविन्द को भी मिला देगा।

-ज्योतिर्विद पं. हेमन्त रिछारिया

बुधवार, 12 अक्तूबर 2016

मुहूर्त श्रेष्ठता

वर्ष मासो दिनं लग्नं मुहूर्तश्चेति पन्चकम्।
कालस्यागानि मुख्यानि प्रबलान्युत्तरोत्तरम्॥
लग्नं दिनभवं हन्ति मुहूर्त: सर्वदूषणम्।
तस्मात् शुद्धि मुहूर्तस्य सर्वकार्येषु शस्यते॥
अर्थ- मास श्रेष्ठ होने पर वर्ष का, दिन श्रेष्ठ होने पर मास का एवं मुहूर्त (लग्नादि) श्रेष्ठ होने पर वर्ष,मास, दिन सभी के दोष दूर हो जाते हैं।
-मुहूर्तचिन्तामणि

"उपनिषद् सूत्र"

"नायत्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन।
 यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनू ँ् स्वाम्॥"
-यह परब्रह्म परमात्मा न तो प्रवचन से; न बुद्धि से; न बहुत सुनने से ही प्राप्त हो सकता है। जिसको यह स्वीकार कर लेता है उसके द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है। यह परमात्मा उसके लिए अपने यथार्थ स्वरूप को प्रकट कर देता है।
-कठोपनिषद्


"श्रेयश्च प्रेयश्च मनुष्यमेतस्तौ सम्परीत्य विविनक्ति धीर:।
श्रेयो हि धीरोऽभि प्रेयसो वृणीते प्रेयो मन्दो योगक्षेमाद् वृणीते॥"
-श्रेय और प्रेय ये दोनों ही मनुष्य के सामने आते हैं; बुद्धिमान मनुष्य उन दोनों के स्वरूप पर भलीभाँति विचारकरके उनको पृथक्-पृथक् समझ लेता है। वह श्रेष्ठबुद्धि मनुष्य परम कल्याण के साधन को ही भोग साधन के अपेक्षा श्रेष्ठ समझकर ग्रहण करता है परन्तु मन्दबुद्धि वाला मनुष्य लौकिक योगक्षेम की इच्छा से भोगों के साधन रूप प्रेय को अपनाता है।
-कठोपनिषद्

एष सर्वेषु भूतेषु गूढोत्मा न प्रकाशते।
दृश्यते त्वग्रयया बुद्धया सूक्ष्मया सूक्ष्मदर्शिभि:॥
-कठोपनिषद् (१.३.१२)
अर्थ-वह सबका आत्मरूप परमपुरूष समस्त प्राणियों में रहता हुआ भी, माया के परदे में छिपा रहने के कारण सबके प्रत्यक्ष नहीं होता। केवल सूक्ष्मतत्वों को समझने वाले पुरुषों द्वारा ही अति सूक्ष्म तीक्ष्ण बुद्धि से देखा जाता है।

उत्तिष्ठ जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत।
क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्गं पथस्तत्कवयो वदन्ति॥
-कठोपनिषद् (१.३.१४)
अर्थ-उठो; जागो; श्रेष्ठ महापुरुषों को पाकर उस परब्रह्म परमेश्वर को जान लो। त्रिकालज्ञ ज्ञानीजन उस तत्वज्ञान के मार्ग को छुरे की तीक्ष्ण की हुई दुस्तर धार के सदृश दुर्गम बतलाते हैं॥

मंगलवार, 11 अक्तूबर 2016

शमी पूजन


"शमी शम्यते पापम् शमी शत्रुविनाशिनी ।
अर्जुनस्य धनुर्धारी रामस्य प्रियदर्शिनी ॥
करिष्यमाणयात्राया यथाकालम् सुखम् मया ।
तत्रनिर्विघ्नकर्त्रीत्वं भव श्रीरामपूजिता ॥"

अर्थ- "हे शमी वृक्ष! आप पापों का क्षय करने वाले और दुश्मनों को पराजित करने वाले हैं। आप अर्जुन का धनुष धारण करने वाले हैं और श्री राम को प्रिय हैं। जिस तरह श्री राम ने आपकी पूजा की, हम भी करेंगे। हमारी विजय के रास्ते में आने वाली सभी बाधाओं से दूर कर के उसे सुखमय बना दीजिये।

देवी विसर्जन का महत्त्व-

हमारे सनातन धर्म में हर पर्व का एक ख़ास महत्त्व होता है। देवी विसर्जन या गणेश विसर्जन का भी बहुत गूढ़ अर्थ है। देवी या गणेश प्रतिमाओं का विसर्जन हमारी साधना की प्रगति को इंगित करता है। जब साधना का प्रथम चरण होता है तब हमें किसी ना किसी आधार की; किसी ना किसी अवलम्बन की आवश्यकता होती है किन्तु जब साधना की पूर्णता होनी होती है तब हमें सारे आधार गिराने होने होते हैं, सारे आकार विसर्जित करने पड़ते हैं तभी हम उस निराकार को जान पाते हैं। निराकार से मेरा तात्पर्य है जिसका कोई एक निश्चित आकार ना हो अपितु सारे आकर उसी के हों, वही सच्चे अर्थों में निराकार है। यह विसर्जन की क्रिया उसी का संकेत मात्र है कि जिस देवी प्रतिमा की हमने इतने दिनों तक साकार रूप में पूजा की अन्तिम दिन उसी आकार को जाकर विसर्जित कर समष्टि से एकाकार कर आए। पहले सिर्फ़ एक प्रतिमा हमारे लिए आराध्य थी किन्तु विसर्जन के पश्चात पूरी स्रष्टि ही हमारे लिए परमात्मा की प्रतिमा का प्रकट स्वरूप बन कर आराध्य हो जाती है। मेरे देखे जब क्षुद्र मिटता है तभी विराट मिलता है।
-ज्योतिर्विद पं. हेमन्त रिछारिया

सोमवार, 10 अक्तूबर 2016

परम्पराओं को रूढ़ रूप में ना मानें

आज विजयदशमी है। यह दिन विजय दिवस के रूप में मनाया जाता है। हम हमारी शास्त्रीय परम्पराओं को कैसे बिना जाने; बिना समझे एक रस्म अदायगी कर देते हैं इसका एक उदाहरण आज के दिन आपको घर-घर में देखने को मिलेगा जब लोग अपने वाहनों को धोकर उनकी पूजा करेंगे। कई उत्साही श्रद्धालुजन मां नर्मदा के जल में वाहनों को खड़ा कर पवित्र करने का प्रयास भी करते नज़र आएंगे लेकिन क्या आप जानते हैं कि इस प्रकार वाहनों की पूजा की परम्परा का प्रारम्भ कहां से हुआ? शायद नहीं, क्योंकि शास्त्र में आज के दिन शस्त्र पूजन एवं अश्व पूजन का विधान है क्योंकि ये दोनों ही युद्ध में प्रयुक्त होते हैं। हमारा सनातन धर्म हमें कृतज्ञता ज्ञापित करना सिखाता है, प्रत्येक उस वस्तु के प्रति जिसने हमें कुछ प्रदान किया है। हम समय- समय पर उनके प्रति अपना अनुग्रह व धन्यवाद अर्पित करते हैं। चाहे वह पर्वत हों, नदियां हों, पशु हों या फ़िर यह सम्पूर्ण प्रकृति ही क्यों ना हो। मेरे देखे परम्पराओं को बिना जाने; बिना उनका भाव समझे केवल रूढ़ रूप उन्हें मानकर रस्म अदायगी कर देना सर्वथा अनुचित है।

रविवार, 9 अक्तूबर 2016

यज्ञ में प्रयुक्त होने वाले काष्ठ पात्र




१. स्रुवा- इसके माध्यम से यज्ञ अथवा हवन में घी की आहुति दी जाती है।
२. प्रणीता- इसमें जल भरकर रखा जाता है। इस प्रणीता पात्र के जल में घी की आहुति देने के उपरान्त बचे हुए घी को "इदं न मम.." कहकर टपकाया जाता है। बाद में इस पात्र का घृतयुक्त होठों एवं मुख से लगाया है जिसे "संसवप्राशन" कहते हैं।
३. प्रोक्षिणी- इसके माध्यम से यज्ञ अथवा हवन में वसोर्धारा (घी की धारा) छोड़ी जाती है। कुछ विद्वान यही क्रिया स्रुचि के माध्यम से भी करते हैं।
४. स्रुचि- इसके माध्यम से यज्ञ अथवा हवन में मिष्ठान की पूर्णाहुति दी जाती है। मिष्ठान की इस आहुति को "स्विष्टकृत" होम कहते हैं। यह क्रिया यज्ञ अथवा हवन में न्यूनता को पूर्ण करने के लिए की जाती है।
५. स्फ़्य- इसके माध्यम से यज्ञ अथवा हवन की भस्म धारण की जाती है।
-ज्योतिर्विद पं. हेमन्त रिछारिया
प्रारब्ध ज्योतिष परामर्श केन्द्र

मंगलवार, 4 अक्तूबर 2016

उपनयन संस्कार

हमारे शास्त्रों में ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य को जनेऊ धारण करने का अधिकार है। उपनयन संस्कार के लिए भी विलग-विलग वर्णों के लिए समय निर्धारित है। ब्राह्मणों का उपनयन संस्कार गर्भाधान या जन्म के आठवें वर्ष, क्षत्रिय के लिए गर्भाधान या जन्म के ग्यारवें वर्ष एवं वैश्य के लिए गर्भाधान या जन्म के बारहवें वर्ष में करने का शास्त्र का आदेश है। किसी भी स्थिति में उपनयन संस्कार को गर्भाधान या जन्म के १६ वर्ष के बाद तक स्थगित नहीं किया जाना चाहिए।
-अग्नि पुराण

एकादशी व्रत

१. दोनों पक्षों की एकादशी को भोजन नहीं करना चाहिए।
२. जिस दिन एक कला एकादशी के बाद द्वादशी लग जाती है, उस दिन व्रत करके त्रयोदशी के दिन भोजन करने से सौ यज्ञ के करने के समान फ़ल की प्राप्ति होती है
३. यदि एकादशी दशमी मिश्रित हो तो उस दिन एकादशी का व्रत नहीं करना चाहिए। दशमी मिश्रित एकादशी का व्रत नरक देने वाला होता है
-अग्नि पुराण

 एकादशी की कथा-

पद्मा पुराण के चतुर्दश अध्याय में, क्रिया-सागर सार नामक भाग में, श्रील व्यासदेव एकादशी के उद्गम की व्याख्या जैमिनी ऋषि को इस प्रकार करते हैं :
इस भौतिक जगत के उत्पत्ति के समय, परम पुरुष भगवान् ने, पापियों को दण्डित करने के लिए पाप का मूर्तिमान रूप लिए एक व्यक्तित्व की रचना की (पापपुरुष)। इस व्यक्ति के चारों हाथ पाँव की रचना अनेकों पाप कर्मों से की गयी थी। इस पापपुरुष को नियंत्रित करने के लिए यमराज की उत्पत्ति अनेकों नरकीय ग्रह प्रणालियों की रचना के साथ हुई। वे जीवात्माएं जो अत्यंत पापी होती हैं, उन्हें मृत्युपर्यंत यमराज के पास भेज दिया जाता है,  यमराज ,जीव को उसके पापों के भोगों के अनुसार नरक में पीड़ित होने के लिए भेज देते हैं।
इस प्रकार जीवात्मा अपने कर्मों के अनुसार सुख और दुःख भोगने लगी। इतने सारी जीवात्माओं को नरकों में कष्ट भोगते देख परम कृपालु भगवान् को उनके लिए बुरा लगने लगा। उनकी सहायतावश भगवान् ने अपने स्वयं के स्वरुप से, पाक्षिक एकादशी के रूप को अवतरित किया। इस कारण, एकादशी एक चन्द्र पक्ष के पन्द्रवें दिन उपवास करने के व्रत का ही व्यक्तिकरण है । इस कारण एकादशी और भगवान् श्री विष्णु अभिन्न नहीं है। श्री एकादशी व्रत अत्यधिक पुण्य कर्म हैं, जो कि हर लिए गए संकल्पों में शीर्ष स्थान पर स्थित है।
तदुपरांत विभिन्न पाप कर्मी जीवात्माएं एकादशी व्रत का नियम पालन करने लगी और उस कारण उन्हें तुरंत ही वैकुण्ठ धाम की प्राप्ति होने लगी। श्री एकादशी के पालन से हुए अधिरोहण से , पापपुरुष (पाप का मूर्तिमान स्वरुप) को धीरे धीरे दृश्य होने लगा कि अब उसका अस्तित्व ही खतरे में पड़ने लगा है। वह भगवान् श्री विष्णु के पास प्रार्थना करते हुए पहुँचा, “हे प्रभु, मैं आपके द्वारा निर्मित आपकी ही कृति हूँ और मेरे माध्यम से ही आप घोर पाप कर्मों वाले जीवों को अपनी इच्छा से पीड़ित करते हैं। परन्तु अब श्री एकादशी के प्रभाव से अब मेरा ह्रास हो रहा है। आप कृपा करके मेरी रक्षा एकादशी के भय से करें। कोई भी पुण्य कर्म मुझे नहीं बाँध सकता हैं। परन्तु आपके ही स्वरुप में एकादशी मुझे प्रतिरोधित कर रही हैं। मुझे ऐसा कोई स्थान ज्ञात नहीं जहाँ मैं श्री एकादशी के भय से मुक्त रह सकूं। हे मेरे स्वामी! मैं आपकी ही कृति से उत्पन्न हूँ, इसलिए कृपा करके मुझे ऐसे स्थान का पता बताईये जहाँ मैं निर्भीक होकर निवास कर सकूँ।”
तदुपरांत, पापपुरुष की स्थिति पर अवलोकन करते हुए भगवान् श्री विष्णु ने कहा, “हे पापपुरुष! उठो! अब और शोकाकुल मत हो। केवल सुनो, और मैं तुम्हे बताता हूँ कि तुम एकादशी के पवित्र दिन पर कहाँ निवास कर सकते हो। एकादशी का दिन जो त्रिलोक में लाभ देने वाला है, उस दिन तुम अन्न जैसे खाद्य पदार्थ की शरण में जा सकते हो।  अब तुम्हारे पास शोकाकुल होने का कोई कारण नहीं है, क्योंकि मेरे ही स्वरुप में श्री एकादशी देवी अब तुम्हे अवरोधित नहीं करेगी।” पापपुरुष को आश्वाशन देने के बाद भगवान श्री विष्णु अंतर्ध्यान हो गए और पापपुरुष पुनः अपने कर्मों को पूरा करने में लग गया। भगवान विष्णु के इस निर्देश के अनुसार, संसार भर में जितने भी पाप कर्म पाए जा सकते हैं वे सब इन खाद्य पदार्थ (अनाज) में निवास करते हैं। इसलिए वे मनुष्य गण जो कि जीवात्मा के आधारभूत लाभ के प्रति सजग होते हैं  वे कभी एकादशी के दिन अन्न नहीं ग्रहण करते हैं।
एकादशी व्रत धारण करना -
सभी वैदिक शास्त्र एकादशी के दिन पूर्ण रूप से उपवास( निर्जल) करने की दृढ़ता से अनुशंसा करते हैं। आध्यात्मिक प्रगति के लिए आयु आठ से अस्सी तक के हर किसी को वर्ण आश्रम, लिंग भेद या और किसी भौतिक वैचारिकता की अपेक्षा कर के एकादशी के दिन व्रत करने की अनुशंसा की गयी है।
वे लोग जो पूर्ण रूप से उपवास नहीं कर सकते उनके लिए मध्याह्न या संध्या काल में एक बार भोजन करके एकादशी व्रत करने की भी अनुशंसा की गयी हैं। परन्तु इस दिन किसी भी रूप में किसी को भी किसी भी स्थिति में अन्न नहीं ग्रहण करना चाहिये।
एकादशी का महात्म्य-
श्रील जीव गोस्वामी द्वारा रचित, भक्ति-सन्दर्भ में स्कन्द पुराण में से लिया हुआ एक श्लोक भर्त्सना करते हुए बताता है कि जो मनुष्य एकादशी के दिन अन्न ग्रहण करते हैं वो मनुष्य अपने माता, पिता, भाइयों एवं अपने गुरु की मृत्यु का दोषी होते हैं, वैसे मनुष्य अगर वैकुंठ धाम तक भी पहुँच जाएँ तो भी वे वहाँ से नीचे गिर जाते हैं। उस दिन किसी भी तरह के अन्न को ग्रहण करना सर्वथा वर्जित है, चाहे वह भगवान् विष्णु को ही क्यों न अर्पित हो। ब्रह्म-वैवर्त पुराण में कहा गया है कि जो कोई भी एकादशी के दिन व्रत करता है वो सभी पाप कर्मों के दोषों से मुक्त हो जाता हैं और आध्यात्मिक जीवन में प्रगति करता है। मूल सिद्धांत केवल उस दिन भूखे रहना नहीं है, बल्कि अपनी निष्ठा और प्रेम को गोविन्द, या कृष्ण पर और भी सुदृढ़ करना है। एकादशी के दिन व्रत का मुख्य कारण है अपनी शरीर की जरूरतों को घटाना और अपने समय का भगवान् की सेवा में जप या किसी और सेवा के रूप में व्यय करना है। उपवास के दिन सर्वश्रेष्ठ कार्य तो भगवान् गोविन्द के लीलाओं का ध्यान करना और उनके पावन नामों को निरंतर सुनते रहना है।

सोमवार, 3 अक्तूबर 2016

युगादि तिथियाँ

शास्त्रों में युगादि तिथियोंका वर्णन इस प्रकार है-
१. सतयुग- कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि सतयुग की आदि तिथि बताई गयी है ।
२. त्रेतायुग- वैशाख शुक्ल पक्ष की जो तृतीया है, वह त्रेतायुग की आदि तिथि कही जाती है ।
३. द्वापर युग- माघ कृष्ण पक्ष की अमावस्या को द्वापर की आदि तिथि माना गया है।
४. कलियुग- भाद्रपद कृष्ण त्रयोदशी कलियुग की प्रारंभ तिथि कही गयी है ।
ये चार युगादि तिथियाँ है, इनमें किया हुआ दान और होम अक्षय जानना चाहिए । प्रत्येक युग में सौ  वर्षों तक दान करने से जो फल होता है, वह युगादि-काल में एक दिन के दान से प्राप्त हो जाता है ।
-स्कंद पुराण

वर्णसंकर के प्रकार

जब पुरूष और स्त्री की जाति समान ना हो तो उनसे उत्पन्न सन्तान "वर्णसंकर" कहलाती है। "वर्णसंकर" निम्न प्रकार के होते हैं-
१. चाण्डाल- शूद्र पुरूष और ब्राह्मण स्त्री से उत्पन्न सन्तान "चाण्डाल" कहलाती है।
२. देवल- क्षत्रिय पुरूष और ब्राह्मण स्त्री से उत्पन्न सन्तान "देवल" कहलाती है।
३. पुक्क्स- शूद्र पुरूष और क्षत्रिय स्त्री से उत्पन्न सन्तान "पुक्क्स" कहलाती है।
४. मागध- शूद्र पुरूष और वैश्य स्त्री से उत्पन्न सन्तान "मागध" कहलाती है।
अत: उत्तम तथा अधम जाति में परस्पर विवाह नहीं होना चाहिए।
-अग्नि पुराण

ब्राह्मणों के प्रकार



 ब्राह्मण के आठ भेदों का वर्णन इस प्रकार है
मात्र, ब्राह्मण, श्रोत्रिय, अनुचान, भ्रूण, ऋषिकल्प, ऋषि और मुनिये आठ प्रकार के ब्राह्मण बताये गए हैं इनमें विद्या और सदाचार की विशेषता से पूर्व की अपेक्षा उत्तरोत्तर श्रेष्ठ हैं

जिसका जन्म मात्र ब्राह्मण कुल में हुआ है, वह जब जाति मात्र से ब्राह्मण हो कर ब्राह्मणोचित उपनयन संस्कार तथा वैदिक कर्मों से हीन रह जाता है, तब उसकोमात्रऐसा कहते हैं जो एक उद्देश्य को त्याग करव्यक्तिगत स्वार्थ की उपेक्षा करके वैदिक आचार का पालन करता है, सरल एकान्तप्रिय, सत्यवादी तथा दयालु है, उसेब्राह्मणकहा गया है जो वेद  की किसी एक शाखा को कल्प और छहों अंगो सहित पढ़कर ब्राह्मणोचित छह कर्मों में सलंग्न रहता है, वह धर्मज्ञ विप्रश्रोत्रियकहलाता है जो वेदों और वेदांगों का तत्वग्य, पापरहित, शुद्ध चित्त, श्रेष्ठ, श्रोत्रिय विद्यार्थियों को पढ़ाने वाला और विद्वान है, वहअनुचानमाना गया है

जो अनुचान के समस्त गुणों से युक्त होकर केवल यज्ञ और स्वाध्याय में ही संलग्न रहता है, यग्याशिष्ठ भोजन करता है और इन्द्रियों को अपने वश में रखता है, ऐसे ब्राह्मण को श्रेष्ठ पुरुषभ्रूणकहते हैं जो सम्पूर्ण वैदिक और लौकिक विषयों का ज्ञान प्राप्त करके मन और इन्द्रियों को वश में रखते हुए सदा आश्रम में निवास करता है, वहऋषिकल्पमाना गया है जो पहले नैष्ठिक ब्रह्मचारी होकर नियमित भोजन करता है, जिसको किसी भी विषय में कोई संदेह नहीं है तथा जो श्राप और अनुग्रह में समर्थ और सत्यप्रतिज्ञ हैं, ऐसा ब्राह्मणऋषिमाना गया है जो निवृति मार्ग में स्थित, सम्पूर्ण  तत्वों का ज्ञाता, काम-क्रोध से रहित, ध्याननिष्ठ, जितेन्द्रिय तथा मिटटी और सुवर्ण को समान समझने वाला है, ऐसे ब्राह्मण कोमुनिकहते हैं इस प्रकार वंश, विद्या और सदाचार से ऊंचे उठे हुए ब्राह्मणत्रिशुक्लकहलाते हैं ये ही यज्ञ आदि में पूजे जाते हैं   इस प्रकार आठ भेदों  वाले ब्राह्मण का वर्णन किया गया है
-स्कंद पुराण