रविवार, 5 मार्च 2017

"कही जाए सो व्यथा, बही जाए सो कथा"

आज हमारे चहुँओर कहीं ना कहीं भागवत कथा या रामकथा का आयोजन होता हुआ दिखाई देता है। दूसरी ओर समाज में निरन्तर कुछ ऐसी घटनाएँ भी घटित होती रहती हैं जिनसे यह प्रतीत होता है कि हमारा समाज शीघ्रता से अनैतिकता की ओर अग्रसर हो रहा है। समाज में अनैतिकता को यदि रोग की संज्ञा दी जाए और इन कथाओं व उपदेशों को औषधि की तो निष्कर्ष यह निकलता है कि औषधि यदि कारगर है तो रोग नष्ट होना चाहिए। यदि रोग नष्ट होने के स्थान पर बढ़ रहा है तो औषधि ठीक नहीं है। मेरे देखे आज के अधिकांश कथावाचक अभिनेता हैं; साधक नहीं। अभिनेता होना एक बात है, साधक होना बिल्कुल दूसरी बात। कथा समय के ३ घण्टे अभिनय को कथा के अनुरूप साधा जा सकता है किन्तु सम्पूर्ण जीवन को कथाओं के बताए अनुसार परिवर्तित कर लेना बड़ी साधना है। आजकल के अधिकतर सदगुरू लोगों को जगाते कम; सुलाते अधिक हैं। इसके पीछे दो मुख्य कारण है पहले तो वे खुद ही सोए हुए हैं क्योंकि जो स्वयं ही सोया है वह किसी और क्या जगाएगा और दूसरा जिस दिन उन्होंने लोगों को जगाना प्रारम्भ कर दिया उसी दिन से उनका विरोध होना शुरू हो जाएगा क्योंकि शारीरिक नींद ही इतनी मीठी और गहरी होती है तो चित्त की निद्रा की तो बात ही क्या, जब उसे तोड़ा जाता है तो बहुत कष्ट होता है इसीलिए उस निद्रा को तोड़ने वाले का विरोध होना स्वाभाविक है। विरले ही इस प्रकार की साधना में प्रवृत्त हो पाते हैं। जिस प्रकार यदि हम किसी पात्र को किसी वस्तु से भरते जाएं और जब वह पात्र पूर्णरूपेण भर जाए तब क्या होगा! वह वस्तु उस पात्र के ऊपर से बहने या झलकने लगेगी। ठीक उसी प्रकार जब हम अपने अन्त:करण को परमात्मतत्व रूपी गुण से भरते जाते हैं और हमारा यह अन्तर्घट जब पूर्ण हो जाता है तब जो झलकने लगता है वही सच्चा उपदेश व सही कथा है। मेरे देखे जो सप्रयास कही जाए वह व्यथा, जो अनायास बही जाए वह कथा है। जब साधक की वाणी निमित्त मात्र बनकर उपकरण का कार्य करती है तब मुख से जो निकलता है वह दिव्य होता है क्योंकि वह अलौकिक होता है। तब वह किसी और तल का; किसी और जगत का होता है, साधक तो केवल एक निमित्त और उपकरण मात्र होता है। जिस दिन इस प्रकार कथाएं व उपदेश कहे जाएंगे उसी दिन से समाज परिवर्तित होना प्रारम्भ हो जाएगा। !! राधे...राधे....!!

-ज्योतिर्विद पं. हेमन्त रिछारिया