बुधवार, 31 जनवरी 2018

ज्योतिष और चिकित्सकीय दृष्टिकोण



किसी ज्योतिषी द्वारा जन्मपत्रिका देखने के बाद जब ग्रहशान्ति, जप, दान, रत्न-धारण इत्यादि का परामर्श दिया जाता तब अक्सर लोगों की जिज्ञासा होती है कि इस ग्रहशान्ति कर्म से उन्हें कितने दिनों में लाभ हो जाएगा? साँसारिक दृष्टि से उनका यह प्रश्न उचित भी प्रतीत होता है। ठीक उसी प्रकार जैसे हम बाज़ार में किसी वस्तु को क्रय करने से पूर्व उसकी भलीभाँति जाँच-पड़ताल करने के उपरान्त ही उसे क्रय करते हैं। वहीं अस्वस्थ होने पर जब हम किसी चिकित्सक के पास जाते हैं तब भी हमारे मन में यही प्रश्न होता है कि अमुक दवा से हम कितने दिनों में पुन: स्वस्थ हो जाएँगे! हम उसी चिकित्सक और औषधि को श्रेष्ठ मानते हैं जो हमें तत्काल लाभ देती है। व्यावसायिक एवं साँसारिक दृष्टिकोण से यह सर्वथा उचित मनोभाव है किन्तु जब विषय धर्म, आस्था, ईश्वर और विश्वास सम्बन्धी होता है तब यह मनोभाव अनुचित प्रतीत होता है। हमें धर्म व आस्था के क्षेत्र में व्यावसायिक व चिकित्सकीय दृष्टिकोण नहीं रखना चाहिए। हमारी भावदशा तो एक कृषक की भाँति होनी चाहिए। जिस प्रकार एक कृषक बीजारोपण से पूर्व भूमि तैयार करता है, फ़िर उसमें बीज डालता है, उस बीज की खाद-पानी डालकर उचित देखभाल करता है किन्तु यह सब करने मात्र से ही वह फ़ल या फ़सल प्राप्त करने का अधिकारी नहीं हो जाता है। इन सबके अतिरिक्त वह एक अति- महत्त्वपूर्ण कार्य करता है जो उसके द्वारा बोए गए बीज में अंकुरण का मुख्य कारण बनता है, वह है- प्रार्थना एवं पूर्ण श्रद्धा व धैर्य के साथ प्रतीक्षा। प्रतीक्षा कैसी; धैर्य कैसा!, जो श्रद्धा और विश्वास से परिपूर्ण हो। परमात्मा हमारे दास नहीं हैं जो हमारे द्वारा किए गए पूजा-पाठ, जप-तप, दान के अधीन होकर हमें हमारा अभीष्ट देने के लिए बाध्य हों। परमात्मा तो सदा-सर्वदा बिना किसी कारण के कृपा करते हैं इसीलिए हमारे शास्त्रों में परमात्मा को "अहैतु" कहा गया है। "अहैतु" का अर्थ है बिना किसी हेतु के अर्थात् जो अकारण कृपा करें। अब यक्ष-प्रश्न यह उठता है कि जब परमात्मा बिना किसी कारण के ही कृपा करते हैं तब इन ग्रहशान्तियों, पूजा-पाठ, नामजप, दान इत्यादि से क्या प्रायोजन? इस प्रश्न के समाधान के लिए एक बात समझनी अत्यन्त आवश्यक है कि ईश्वर कृपा तो नि:सन्देह करते हैं लेकिन उस कृपा को हम तक पहुँचाने के लिए एक निमित्त की आवश्यकता उन्हें भी होती है। क्या योगीश्वर भगवान कृष्ण कौरवों की चतुरंगिणी सेना को अपनी भृकुटि-विलास मात्र से परास्त नहीं कर सकते थे? किन्तु उन्होंने अपने इस कार्य के लिए अर्जुन को निमित्त बनाया। सम्पूर्ण गीता का यही सन्देश है- निमित्त हो जाना, साक्षी हो जाना। कर्ताभाव का सर्वथा त्याग कर देना। केवल कुछ कर्मकाण्ड या पूजा-विधानों को सम्पन्न कर देने मात्र से हम शुभफ़ल पाने के अधिकारी नहीं हो जाते। शुभफ़ल प्राप्ति के लिए आवश्यकता होती है सतत शुद्ध मन व निर्दोष चित्त से प्रार्थना करने की। जब हमारी प्रार्थनाएँ ईश्वर तक पहुँचती है तब वे स्वयं हमें सँकेत देते हैं। अब अपने इ्न सँकेतों तो हम तक पहुँचाने के लिए वे किसी ज्योतिषी को निमित्त बनाएँ या फ़िर उस ज्योतिषी के द्वारा बताए गए पूजा-विधानों व ग्रहशान्तियों अथवा वे चाहें तो बिल्कुल तुच्छ और निरर्थक सा प्रतीत होने वाला कोई निमित्त भी चुन सकते हैं यह सब उनकी इच्छा पर निर्भर करता है। हम अपने कुछ वर्षों के अनुभव के आधार पर यह अनुभूत सत्य आप पाठको को बताना चाहेंगे कि यदि शुद्ध मन व निर्दोष भाव से पूजा-विधान एवं प्रार्थनाएँ की जाएँ तो सकारात्मक परिणाम प्राप्त होते ही हैं।

-ज्योतिर्विद् पं. हेमन्त रिछारिया
सम्पर्क: astropoint_hbd@yahoo.com