मंगलवार, 31 जुलाई 2018

कब से होता युगों का प्रारम्भ


हमारे सनातन धर्म में चार युगों का उल्लेख है। ये चार युग हैं- 1. सतयुग 2. त्रेतायुग 3. द्वापर युग 4. कलियुग। लेकिन क्या आप जानते हैं कि इन चारों युगों में कितने वर्ष होते हैं एवं इन चार युगों का प्रारम्भ किस दिन से होता है! युगों के क्रम में सबसे पहले सतयुग आता है शेष तीनों युग क्रमश: आते हैं। आईए जानते हैं कि यह चारों युग कबसे प्रारम्भ होते हैं एवं कितने वर्षों बाद इनका प्रारम्भ होता है।
1. सतयुग- सतयुग जिसे कृतयुग भी कहा जाता है। सतयुग में कुल 17,28,000 वर्ष होते हैं। शास्त्रानुसार सतयुग का प्रारम्भ अत्यन्त पवित्र कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि से होता है। जिसे अक्षयनवमी भी कहा जाता है। सतयुग में धर्म अपने 4 चरणों से विद्यमान रहता है।
2. त्रेतायुग- त्रेतायुग में कुल 12,96,000 वर्ष होते हैं। शास्त्रानुसार त्रेतायुग का प्रारम्भ वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि से होता है। जिसे अक्षय-तृतीया या अखातीज भी कहा जाता है। त्रेतायुग में धर्म अपने 3 चरणों से विद्यमान रहता है।
3. द्वापरयुग- द्वापर युग में कुल 8,64,000 वर्ष होते हैं। शास्त्रानुसार द्वापर युग का प्रारम्भ माघ मास की पूर्णिमा तिथि से होता है। द्वापर युग में धर्म अपने 2 चरणों से विद्यमान रहता है।
4. कलियुग- कलियुग में कुल 4,32,000 वर्ष होते हैं। शास्त्रानुसार कलियुग का प्रारम्भ आषाढ़ मास के कृष्णपक्ष की त्रयोदशी तिथि से होता है। कलियुग में धर्म अपने 1 चरण से विद्यमान रहता है।

-ज्योतिर्विद पं. हेमन्त रिछारिया
प्रारब्ध ज्योतिष परामर्श केन्द्र
सम्पर्क: astropoint_hbd@yahoo.com

गुरुवार, 12 जुलाई 2018

नवरात्र में देवी आरधना

 
हमारे सनातन धर्म में नवरात्रि का पर्व बड़े ही श्रद्धा भाव से मनाया जाता है। हिन्दू वर्ष में चैत्र, आषाढ़, आश्विन, और माघ, मासों में चार बार नवरात्रि का पर्व मनाया जाता है जिसमें दो नवरात्र को प्रगट एवं शेष दो नवरात्र को गुप्त नवरात्र कहा जाता है। चैत्र और आश्विन मास के नवरात्र में देवी प्रतिमा स्थापित कर मां दुर्गा की पूजा-आराधना की जाती है वहीं आषाढ़ और माघ मास में की जाने वाली देवीपूजा "गुप्त नवरात्र" में अन्तर्गत आती है। जिसमें केवल मां दुर्गा के नाम से अखण्ड ज्योति प्रज्जवलित कर या जवारे की स्थापना कर देवी की आराधना की जाती है। आज से आषाढ़ मास की "गुप्त-नवरात्रि" प्रारम्भ होने रही है। आईए जानते हैं कि इस गुप्त नवरात्रि में किस प्रकार देवी आराधना करना श्रेयस्कर रहेगा।
मुख्य रूप से देवी आराधना को हम तीन भागों में विभाजित कर सकते हैं-
1. घट स्थापना, अखण्ड ज्योति प्रज्जवलित करना व जवारे स्थापित करना- श्रद्धालुगण अपने सामर्थ्य के अनुसार उपर्युक्त तीनों ही कार्यों से नवरात्र का प्रारम्भ कर सकते हैं अथवा क्रमश: एक या दो कार्यों से भी प्रारम्भ किया जा सकता है। यदि यह भी सम्भव नहीं तो केवल घट-स्थापना से देवीपूजा का प्रारम्भ किया जा सकता है।
2. सप्तशती पाठ व जप- देवी पूजन में दुर्गा सप्तशती के पाठ का बहुत महत्त्व है। यथासम्भव नवरात्र के नौ दिनों में प्रत्येक श्रद्धालु को दुर्गासप्तशती का पाठ करना चाहिए किन्तु किसी कारणवश यह सम्भव नहीं हो तो देवी के नवार्ण मन्त्र का जप यथाशक्ति अवश्य करना चाहिए।
!! नवार्ण मन्त्र - "ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चै" !!
3. पूर्णाहुति हवन व कन्या भोज- नौ दिनों तक चलने वाले इस पर्व का समापन पूर्णाहुति हवन एवं कन्याभोज कराकर किया जाना चाहिए। पूर्णाहुति हवन दुर्गा सप्तशती के मन्त्रों से किए जाने का विधान है किन्तु यदि यह सम्भव ना हो तो देवी के "नवार्ण मन्त्र", "सिद्ध कुंजिका स्तोत्र" अथवा दुर्गाअष्टोत्तरशतनाम स्तोत्र" से हवन सम्पन्न करना श्रेयस्कर रहता है।

किन लग्नों में करें घट स्थापना-
देवी पूजा में शुद्ध मुहूर्त्त एवं सही व शास्त्रोक्त पूजन विधि का बहुत महत्त्व है। शास्त्रों में विभिन्न लग्नानुसार घट स्थापना का फल बताया गया है-
1. मेष-धनलाभ
2. वृष-कष्ट
3. मिथुन-संतान को कष्ट
4. कर्क-सिद्धि
5. सिंह-बुद्धि नाश
6. कन्या-लक्ष्मी प्राप्ति
7. तुला- ऐश्वर्य प्राप्ति
8. वृश्चिक-धनलाभ
9. धनु- मानभंग
10. मकर- पुण्यप्रद
11. कुम्भ-  धन-समृद्धि की प्राप्ति
12. मीन- हानि एवं दुःख की प्राप्ति होती है।

कैसे करें दुर्गासप्तशती का पाठ-
नवरात्र में दुर्गासप्तशती का पाठ करना अनन्त पुण्यफलदायक माना गया है। "दुर्गासप्तशती" के पाठ के बिना दुर्गापूजा अधूरी मानी गई है। लेकिन दुर्गासप्तशती के पाठ को लेकर श्रद्धालुओं में बहुत संशय रहता है। शास्त्रानुसार दुर्गाशप्तशती का पाठ करने का विधान स्पष्ट किया गया है। यदि एक दिन में पू्र्ण शास्त्रोक्त-विधि से दुर्गासप्तशती का पाठ सम्पन्न करने की सामर्थ्य ना हो तो निम्नानुसार क्रम व विधि से भी दुर्गासप्तशती का पाठ करना श्रेयस्कर रहता है। आईए जानते है दुर्गासप्तशतीके पाठ की सही विधि क्या है। यदि एक दिन में दुर्गासप्तशती का पूर्ण पाठ करना हो तो निम्न विधि से किया जाना चाहिए-
1. प्रोक्षण (अपने ऊपर नर्मदा जल का सिंचन करना)
2. आचमन
3. संकल्प
4. उत्कीलन
5. शापोद्धार
6. कवच
7. अर्गलास्त्रोत
8. कीलक
9. सप्तशती के 13 अध्यायों का पाठ (इसे विशेष विधि से भी किया जा सकता है)
10. मूर्ती रहस्य
11. सिद्ध कुंजीका स्त्रोत
12. क्षमा प्रार्थना

विशेष विधि-
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दुर्गा सप्तशती के 1 अध्याय को प्रथम चरित्र। 2,3,4 अध्याय को मध्यम चरित्र एवं 5 से लेकर 13 अध्याय को उत्तम चरित्र कहते है। जो श्रद्धालुगण पूरा पाठ (13 अध्याय) एक दिन में सम्पना करने में सक्षम नहीं हैं वे निम्न क्रम से भी दुर्गासप्तशती का पाठ कर सकते हैं-
1. प्रथम दिवस- 1 अध्याय
2. द्वितीय दिवस- 23 अध्याय
3. तृतीय दिवस- 4 अध्याय
4. चतुर्थ दिवस- 5,6,7,8 अध्याय
5. पंचम् दिवस- 910 अध्याय
6. षष्ठ दिवस- 11 अध्याय
7. सप्तम् दिवस- 1213 अध्याय
8. अष्टम् दिवस- मूर्ती रहस्य,हवन, व क्षमा प्रार्थना
9. नवम् दिवस- कन्याभोज इत्यादि।

-ज्योतिर्विद् पं. हेमन्त रिछारिया
प्रारब्ध ज्योतिष परामर्श केन्द्र
सम्पर्क: astropoint_hbd@yahoo.com



शनिवार, 7 जुलाई 2018

मोक्ष


देश की राजधानी दिल्ली के बुराड़ी में हुए एक ही परिवार के 11 लोगों के निधन से पूरा देश स्तब्ध है। इन मौतों को कभी आत्महत्या तो कभी हत्या कहकर प्रचारित किया जा रहा है। वास्तविकता और सच क्या है यह तो क्राइम ब्रांच की जांच रिपोर्ट आने के बाद ही स्पष्ट होगा। लेकिन इन अस्वाभाविक हुई मौतों ने देश में धर्म और विज्ञान के मध्य एक नई बहस छेड़ दी। जिसमें विज्ञान के जानकार धर्म को अंधविश्वास से जोड़कर विज्ञान को ही एकमेव सत्य साबित करने में लगे हुए हैं वहीं दूसरी ओर धर्म के विद्वान विज्ञान के मानने वालों को अधार्मिक और नास्तिक कहकर धर्म ध्वजा को ँचा रखने की कोशिश कर रहे हैं। इन दोनों के मध्य आम जनता बेबस और लाचार सी इस ऊहापोह में है कि क्या धर्म को मानना अंधविश्वास है? या जो बात वैज्ञानिक तरीकों से साबित नहीं की जा सकती उसका इस संसार में कोई अस्तित्व ही नहीं! जनता के इन सहज प्रश्नों के समाधान का बीड़ा मीडिया चैनलों ने अपना दायित्व समझकर उठा रखा है। प्रतिदिन न्यूज़ चैनलों पर इस मुद्दे को लेकर की जाने वाली बहस के लिए विद्वान आमन्त्रित किए जा रहे हैं। हाथ में माइक लेकर एक मेहमान की बात पूरी हुए बिना दूसरे मेहमान की ओर दौड़ती एंकर समाधान तलाशने की कोशिश में है किन्तु समाधान मिले कैसे! क्योंकि जिस प्रश्न का समाधान प्राप्त करने की कोशिश की जा रही है वह कोई सामान्य प्रश्न या जिज्ञासा नहीं है, वह तो यक्ष प्रश्न है। जिसका यदि ठीक उत्तर ना मिला तो जीवन दांव पर लगना अवश्यंभावी है। एक बात जो इस पूरे घटनाक्रम में स्पष्ट तौर पर सामने आ रही है वह है- मोक्ष की अभिलाषा। तो क्या मोक्ष की आकांक्षा अंधविश्वास है? निश्चित ही नहीं, क्योंकि हमारे सनातन धर्म में मोक्ष तो चार पुरूषार्थों में से एक है और प्रत्येक व्यक्ति के जीवन का अन्तिम लक्ष्य भी। लेकिन मोक्ष की परिभाषा क्या है; किसे हम मोक्ष कहेंगे! गूढ़ता में उतरे बिना सीधी-सादी भाषा में समझें तो इस जन्म-मरण के दुष्चक्र के बाहर हो जाना ही मोक्ष है अर्थात् आवागमन से मुक्ति ही मोक्ष है। अब प्रश्न उठता है कि मोक्ष प्राप्त कैसे हो, तो इसका समाधान तो हमारे शास्त्रों में अनेक बार बताया गया है, आदि शंकराचार्य का डिमडिम घोष है "पुनरपि जनमं; पुनरपि मरणं, पुनरपि जननि जठरेशयनं, भजगोविन्दम् भजगोविन्दम् भजगोविन्दम् मूढ़मते।" यहां स्पष्ट कर दिया गया है कि मोक्ष प्राप्ति के लिए ईश्वर का नाम स्मरण सबसे सरल उपाय है। जैसे श्लोक में स्पष्ट कहा गया है "मूढ़मते", अर्थात् मूढ़ों; अज्ञानियों को यह सरलता रास नहीं आती क्योंकि इससे उनके अहंकार पर चोट लगती है वे मोक्ष भी किसी वस्तु की तरह अपने बाहुबल के सामर्थ्य से प्राप्त करना चाहते हैं। अपने इसी झूठे अहंकार को तृप्त करने के लिए वे तरह-तरह के बेबूझ व अनूठे प्रयास कर अपना जीवन तक दांव पर लगा बैठते हैं। इसमें ना धर्म का दोष है, ना शास्त्र का दोष है और ना ही आस्था का। यदि किसी का दोष है, तो वह है हमारी-आपकी अज्ञानता का। आज हम हर लक्ष्य त्वरित पाना चाहते हैं, फ़िर वह मोक्ष ही क्यों ना हो। आज का व्यक्ति धैर्य और श्रद्धा से कोसों दूर है। सिद्धों का वचन कि यदि मोक्ष की भी आकांक्षा मन में रही तो यही आकांक्षा मोक्ष प्राप्ति में बाधक बन जाएगी। गीता में स्वयं योगेश्वर भगवान कृष्ण ने कहा है "कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फ़लेषु कदाचन" अर्थात् केवल कर्म पर मनुष्य का अधिकार है उस कर्म के फल पर नहीं। अब जिस वस्तु पर आपका अधिकार ही नहीं फिर उस वस्तु की अनाधिकार चेष्टा क्यों करनी। अब बात आती है विज्ञान की, तो धर्म और विज्ञान में सामंजस्य होना चाहिए किसी प्रकार की प्रतिस्पर्धा नहीं। धर्म और विज्ञान के मध्य श्रेष्ठता और प्रामाणिकता की लड़ाई उसके अनुयायियों की कुचेष्टा मात्र है। विज्ञान चीजों को दो रूपों में देखता है ज्ञात और अज्ञात जबकि धर्म की चीज़ों को देखने की एक तीसरी दृष्टि भी है, वह है vKs;। यहां vKs; से आशय है जिसे जाना तो जा सकता है किन्तु बताया नहीं जा सकता जैसे आत्मा-परमात्मा आदि। बस विज्ञान को यहीं से अड़चन प्रारम्भ हो जाती है क्योंकि विज्ञान उसी चीज़ को मान्यता देता है जिसे वह ना केवल जान लेता है अपितु उसे दूसरों को बताने में भी सक्षम हो। उदाहरण के तौर पर एक छोटी सी वस्तु पंखा जिसका अविष्कार तो किसी और ने किया किन्तु उसका प्रयोग हम सभी करते हैं किन्तु धर्म में यह सम्भव नहीं कि ध्यान, धारणा, समाधि, बुद्धत्व किसी व्यक्ति को घटित हो और उसका पता सभी व्यक्तियों को चल जाए। उसका पता तो विरलों को चलता है जिन्हें स्वयं यह घटित हो चुका है केवल वही इसका प्रमाण दे सकते हैं अन्य दूसरा नहीं। तो विज्ञान इसकी मान्यता कैसे देगा, अब इसका आशय यह नहीं कि ध्यान, धारणा, समाधि,बुद्धत्व,आत्मा यह सब मिथ्या है; नहीं, कदापि नहीं। आत्मा ही इस संसार का एकमात्र सत्य है, शेष सभी नश्वर और मिथ्या। इसे ऐसे समझने का प्रयास करें कि जिस दौर में वायुयान, टेलीविज़न, टेलीफ़ोन, मिसाईल जैसी वस्तुओं का अविष्कार नहीं हुआ था उस दौर में यदि कोई रामायण में वर्णित पुष्पक विमान या महाभारत के संजय और उस युद्ध में प्रयुक्त आग्नेय अस्त्रों की बात करता तो विज्ञान उसे मान्यता देता! कभी नहीं देता क्योंकि तब तक विज्ञान के सामने यह प्रत्यक्ष नहीं थे। आज है तो विज्ञान इन्हें सहर्ष स्वीकर कर रहा है। यदि किसी दिन GOD पार्टिकल खोजना सफ़ल हो गया, जिसे खोजने की कोशिश विज्ञान ने प्रारम्भ कर दी है तो उस दिन विज्ञान आत्मा-परमात्मा को भी मान्यता देने लगे तो आश्चर्य नहीं है। विज्ञान की अपनी सीमा है जबकि धर्म असीम है, बस यहीं धर्म विज्ञान से दो कदम आगे निकल जाता है और विज्ञान से श्रेष्ठ हो जाता। मनुष्य अध्यात्म, धर्म या यूं कहें कि ईश्वर के जितना निकट रहेगा उतना भौतिक दुष्प्रचारों से सुरक्षित रहेगा। रही बात ईश्वर की तो ईश्वर हम सभी को जन्म से ही प्राप्त है क्योंकि बिना ईश्वर के इस संसार में किसी का अस्तित्व होना सम्भव नहीं।

-ज्योतिर्विद् पं. हेमन्त रिछारिया
प्रारब्ध ज्योतिष परामर्श केन्द्र
सम्पर्क: astropoint_hbd@yahoo.com