बुधवार, 15 अक्तूबर 2014

जानिए “गुरू-पुष्य” के बारे में-


सर्वप्रथम यह जानना आवश्यक है जैसा कि अक्सर सुनने में आता है “गुरू-पुष्य नक्षत्र”; यह  अपने आप में एक गलत शब्द है। “गुरू-पुष्य” किसी नक्षत्र का नहीं अपितु एक मुर्हुत का नाम है, जो “पुष्य” नामक नक्षत्र के संयोग से बनता है। हमारा आकाश जिसे ज्योतिषीय भाषा में “भचक्र” कहते हैं; २७ बराबर भागों में विभक्त रहता है। यही विभक्त तारा पुंज “नक्षत्र” कहलाते हैं। प्रत्येक नक्षत्र का मान १३ अंश २० कला होता है। एक राशि में सवा दो नक्षत्र होते हैं। प्रत्येक नक्षत्र में चार चरण होते हैं। प्रत्येक चरण ३ अंश २० कला का होता है। “पुष्य” सब नक्षत्रों का राजा माना जाता है। “पुष्य” नक्षत्र के स्वामी न्यायाधिपति “शनि” होते हैं। यह एक अत्यंत शुभ नक्षत्र होता है। इसमें जन्म लेने वाला व्यक्ति धनी,प्रतिष्ठित,विद्वान व सात्विक आचार-विचार वाला होता है। मर्यादा पुरूषोत्तम भगवान श्रीराम का जन्म “पुष्य” नक्षत्र में ही हुआ था। एक नक्षत्र का कालचक्र २७ दिनों का होता है। जब यह नक्षत्र अपने कालचक्रानुसार क्रमशः रविवार व गुरूवार के दिन होता है तो इसे “रवि-पुष्य” व “गुरू-पुष्य” शुभ संयोग का नाम दिया जाता है। इसमें “रवि-पुष्य” साधना के लिए एवं “गुरू-पुष्य” खरीदी व किसी भी शुभ कार्य के शुभारंभ हेतु अत्यंत श्रेष्ठ माना जाता है।

संवत्सर

संवत् ५ प्रकार के होते हैं-
१.- संवत्सर- सूर्य के १२ राशियों के भोगकाल को “संवत्सर” कहा जाता है।
२.- परिवत्सर- गुरू के १२ राशियों के भोगकाल को “परिवत्सर” कहा जाता है।
३.- इडावत्सर- १२ मास के पूर्ण होने को “इडावत्सर” कहा जाता है।
४.- अनुवत्सर- चंद्रमा के १२ राशियों के भोगकाल को “अनुवत्सर” कहा जाता है।
५.- वत्सर- नक्षत्र घटित १२ मासों को “वत्सर” कहा जाता है।

मंगलवार, 7 अक्तूबर 2014

संस्कृत का पहला श्लोक


महर्षि वाल्मीकि के जीवन से जुड़ी एक घटना है। एक बार महर्षि वाल्मीकि एक क्रौंच पक्षी के जोड़े को निहार रहे थे. वह जोड़ा प्रेम करने में लीन था. पक्षियों को देखकर महर्षि वाल्मीकि न केवल अत्यंत प्रसन्न हुए, बल्कि सृष्टि की इस अनुपम कृति की प्रशंसा भी की. इतने में एक पक्षी को एक बाण आ लगा, जिससे उसकी जीवन -लीला तुरंत समाप्त हो गई. यह देख मुनि अत्यंत क्रोधित हुए और शिकारी को संस्कृत में कुछ श्लोक कहा. मुनि द्वारा बोला गया यह श्लोक ही संस्कृत भाषा का पहला श्लोक माना जाता है.

“मां निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः।
 यत्क्रौंचमिथुनादेकम् अवधीः काममोहितम्॥”

(अरे बहेलिये, तूने काममोहित मैथुनरत क्रौंच पक्षी को मारा है. जा तुझे कभी भी प्रतिष्ठा की प्राप्ति नहीं हो पायेगी)

गुरुवार, 2 अक्तूबर 2014

साढ़े तीन मुहूर्त

"मुहूर्त्त" अर्थात् किसी भी कार्य को करने का श्रेष्ठतम समय। शास्त्रानुसार मास श्रेष्ठ होने पर वर्ष का, दिन श्रेष्ठ होने पर मास का, लग्न श्रेष्ठ होने पर दिन का एवं मुहूर्त्त श्रेष्ठ होने पर लग्न सहित समस्त दोष दूर हो जाते हैं। हमारे शास्त्रों में शुभ मुहूर्त्त का विशेष महत्त्व बताया गया है किन्तु कुछ ऐसी तिथियाँ होती हैं जब मुहूर्त्त देखने की कोई आवश्यकता नहीं रहती ऐसी तिथियों को “अबूझ मुहूर्त्त” या “स्वयं सिद्ध मुहूर्त्त” कहते हैं। ऐसे “स्वयं सिद्ध मुहूर्त्त” की संख्या हमारे शास्त्रों में साढ़े तीन बताई गई है। आईए जानते हैं “अबूझ मुहूर्त्त” कौन से होते हैं।
१. चैत्र शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा अर्थात् गुड़ी पड़वा (हिन्दू नववर्ष)
२. विजयादशमी (दशहरा)
३. अक्षय तृतीया (अखातीज)
४. कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा का आधा भाग
उपर्युक्त तिथियों को स्वयं सिद्ध मुहूर्त्त की मान्यता प्राप्त है। इन तिथियों में बिना मुहूर्त्त का विचार किए नवीन कार्य प्रारम्भ किए जा सकते हैं।