रविवार, 23 जुलाई 2017

मन्दिरों की अनोखी परम्पराएँ


श्रीजगन्नाथ मन्दिर पुरी (ओड़ीसा)-
श्रीजगन्नाथ मन्दिर में प्रात:काल भगवान श्री जगन्नाथ को खिचड़ी का बालभोग लगाया जाता है। प्राचीनकाल में एक भक्त कर्माबाई प्रात:काल बिना स्नान किए ही ठाकुर जी के लिए खिचड़ी बनाती थी। कथानुसार ठाकुर जी स्वयं बालरूप में कर्माबाई की खिचड़ी खाने आते थे लेकिन एक दिन कर्माबाई के यहाँ एक साधु मेहमान हुआ। उसने जब देखा कि कर्माबाई बिना स्नान किए ही खिचड़ी बनाकर ठाकुर जी को भोग लगा देती हैं तो उसने उन्हें ऐसा करने से मना किया और ठाकुर जी का भोग बनाने व अर्पित करने के कुछ विशेष नियम बता दिए। अगले दिन कर्माबाई ने इन नियमों के अनुसार ठाकुर जी के लिए खिचड़ी बनाई जिससे उन्हें देर हो गई और वे बहुत दु:खी हुई कि आज मेरा ठाकुर भूखा है। ठाकुर जी जब उनकी खिचड़ी खाने आए तभी मन्दिर में दोपहर के भोग का समय हो गया और ठाकुर जी जूठे मुँह ही मन्दिर पहुँच गए। वहाँ पुजारियों ने देखा कि ठाकुर जी मुँह पर खिचड़ी लगी हुई है, तब पूछने पर ठाकुर जी ने सारी कथा उन्हें बताई। जब यह बात साधु को पता चली तो वह बहुत पछताया और उसने कर्माबाई से क्षमायाचना करते हुए उसे पूर्व की तरह बिना स्नान किए ही ठाकुर जी के लिए खिचड़ी बनाकर ठाकुर जी को खिलाने को कहा। आज भी पुरी के जगन्नाथ मन्दिर में प्रात:काल बालभोग में खिचड़ी का ही भोग लगाया जाता है। मान्यता है कि यह कर्माबाई की ही खिचड़ी है। -
जगन्नाथ मन्दिर पुरी (उड़ीसा)- भगवान को बुखार-
ज्येष्ठ पूर्णिमा को भगवान जगन्नाथ को ठण्डे जल से स्नान कराया जाता है। इस स्नान के बाद भगवान को ज्वर (बुखार) आ जाता है। १५ दिनों तक भगवान जगन्नाथ को एकान्त एक विशेष कक्ष में रखा जाता है। जहां केवल उनके वैद्य और निजी सेवक ही उनके दर्शन कर सकते हैं। इसे "अनवसर" कहा जाता है। इस दौरान भगवान जगन्नाथ को फ़लों के रस, औषधि एवं दलिया का भोग लगाया जाता है। भगवान स्वस्थ होने पर अपने भक्तों से मिलने रथ पर सवार होकर निकलते हैं जिसे जगप्रसिद्ध "रथयात्रा" कहा जाता है। "रथयात्रा" प्रतिवर्ष आषाढ़ मास की शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि को निकलती है।
ब्रज की अनोखी परम्परा-
ब्रज के मन्दिरों में एक अनोखी परम्परा है। जब वहाँ कोई भक्त मन्दिर के विग्रह के लिए माला लेकर जाता है तो वहाँ के पुजारी उस माला को विग्रह से स्पर्श कराकर उसी भक्त के गले में पहना देते हैं। इसके पीछे एक बड़ी प्रीतिकर कथा है। श्रुति अनुसार अकबर के समय की बात है एक वैष्णव भक्त प्रतिदिन श्रीनाथ जी के लिए माला लेकर जाता था। एक दिन अकबर का सेनापति भी ठीक उसी समय माला लेने पहुँचा जबकि माली के पास केवल १ ही माला शेष थी। वैष्णव भक्त और अकबर के सेनापति दोनों ही माला खरीदने के लिए अड़ गए। इस धर्मसंकट से मुक्ति पाने के लिए माली ने कहा कि जो भी अधिक दाम देगा उसी को मैं यह माला दूँगा। दोनों ओर से माला के लिए बोली लगनी आरम्भ हो गई। जब माला की बोली अधिक दाम पर पहुँची तो अकबर के सेनापति बोली बन्द कर दी। अब वैष्णव भक्त को अपनी बोली के अनुसार दाम देने थे। भक्त तो अंकिचन ब्राह्मण था उसके पास इतना धन नहीं था सो उसने उसके घर सहित जो कुछ भी पास था वह सब बेच कर दाम चुकाकर माला खरीद ली। जैसे ही उसने यह माला श्रीनाथजी की गले में डाली वैसे ही उनकी गर्दन झुक गई। श्रीनाथजी को झुके देख उनके सेवा में लगे पुजारी भयभीत हो गए। उनके पूछने पर जब श्रीनाथ जी ने सारी कथा उन्हें बताकर उस भक्त की सहायता करने को कहा। जब पुजारियों ने उस भक्त का घर सहित सब व्यवस्थाएं पूर्ववत की तब जाकर श्रीनाथ जी सीधे हुए। तब से आज तक ब्रज में यह परम्परा है कि भक्त की माला श्रीविग्रह को स्पर्श कराकर उसे ही पहना दी जाती है। किंवदंतियों अनुसार यह घटना गोवर्धन स्थित जतीपुरा मुखारबिन्द की है। ऐसी मान्यता है कि नाथद्वारा में जो श्रीनाथ जी का विग्रह है वह इन्हीं ठाकुर जी का रूप है।
मन्दिरों के रोचक किस्से-
- राजस्थान के डाकौर के रणछोड़दास जी मन्दिर में भगवान को श्रृँगार में आज भी पट्टी बाँधी जाती है। मान्यता है कि यहाँ भगवान ने अपने भक्त को मार से बचाने के लिए उसकी चोटें अपने शरीर पर ले ली थीं।
- उदयपुर के समीप श्रीरूप चतुर्भुजस्वामी के मन्दिर में आज भी वहाँ के राजा का प्रवेश वर्जित है। मान्यता है कि यहाँ भगवान ने अपने भक्त देवाजी पण्डा की अवमानना करने पर राजा को श्राप दे रखा है कि वे उनके मन्दिर में प्रवेश ना करें और ना ही उनके दर्शन करें।
- ओरछा के रामराजा सरकार का मुख्य विग्रह उनके लिए बनाए गए मन्दिर के स्थान पर राजमहल के रसोईघर में स्थित है। कथानुसार यहाँ की महारानी गणेशदेई जब भगवान श्रीराम को अयोध्या लाने गई तो श्रीराम प्रभु ने साथ चलने के लिए अपनी दो शर्ते रखीं, पहली कि वे केवल महारानी की गोद में बैठकर ही यात्रा करेंगे और जहाँ वे उन्हें अपनी गोद से उतारेंगी वे वहीं स्थापित हो जाएँगे। दूसरी शर्त थी कि महारानी केवल पुष्य नक्षत्र में ही यात्रा करेंगी। ओरछा पहुँचने पर महारानी अपनी पहली शर्त भूल गई क्योंकि तब तक मन्दिर अपूर्ण था इसलिए महारानी गणेशदेई ने श्रीराम का विग्रह अपनी गोद से उतारकर महल के रसोईघर में रख दिया। अपनी शर्त के अनुसार भगवान राम महारानी की गोद से उतरते ही वहीं स्थापित हो गए। तब से आज तक यह विग्रह महल के रसोईघर में ही स्थापित है। यद्यपि वर्तमान में उसे मन्दिर का रूप दे दिया गया है।
-उज्जैन स्थित महाकाल व ओरछा स्थित रामराजा सरकार को राजा माना जाता है और राज्य सरकार द्वारा गार्ड आफ़ आनर दिया जाता है।
- हरदा जिले के नेमावर स्थित सिद्धनाथ जी के सिद्धेश्वर मन्दिर का मुख्य द्वार प्रवेश द्वार से उल्टी दिशा में है। मन्दिर प्राँगण में प्रवेश करने पर सर्वप्रथम मन्दिर का पार्श्व भाग दिखाई देता है। मान्यता है कि महाभारत काल में एक विशेष पूजा के चलते प्रात:काल सूर्य की किरणें मन्दिर में प्रवेश ना कर पाएँ इसलिए महाबली भीम ने इस मन्दिर को घुमा दिया था। यह मन्दिर आज तक उसी स्थिति में है।

-ज्योतिर्विद् पं. हेमन्त रिछारिया
सम्पर्क: astropoint_hbd@yahoo.com


मंगलवार, 18 जुलाई 2017

श्रीकृष्ण के बालसखा-



भक्तमाल आदि ग्रन्थों में श्रीकृष्ण के बालसखा का वर्णन मिलता है।
श्रीकृष्ण के ब्रजसखा हैं- मधुमंगल, सुबल, सुबाहु, सुभद्र, भद्र, मणिभद्र, वरूथप, तोककृष्ण, भोज, अर्जुन और श्रीदामा।
इन सखाओं में मधुमंगल और श्रीदामा के साथ श्रीकृष्ण की अन्तरंग प्रीति थी। सुदामा भी श्रीकृष्ण के प्रिय सखा थे लेकिन वे गुरूकुल सखा थे।

-ज्योतिर्विद् पं. हेमन्त रिछारिया

श्रीराधारानी की सखियाँ


भक्तमाल आदि ग्रन्थों में श्री राधारानी की सखियों का वर्णन मिलता हैं। श्रीराधाकिशोरी जी पांच प्रकार की सखियाँ मानी जाती हैं-
1. सखी - कुसुमिका, विन्ध्या, धनिष्ठा
2. नित्यसखी- कस्तूरी व मणिमंजरिका
3. प्राणसखी - शशिमुखी, वासन्ती, लासिका
4. प्रिय सखी- कुरंगाक्षी, मंजुकेशी, माधवी, मालती
5. परमप्रेष्ठ सखी- श्रीललिता, विशाखा, चित्रा, इन्दुलेखा, चम्पकलता, रंगदेवी, तुंगविद्या व सुदेवी। ये आठ सखी ही "अष्टसखी" के नाम से विख्यात हैं।

-ज्योतिर्विद् पं. हेमन्त रिछारिया

जानिए ब्रह्माण्ड की पद व्यवस्था

जिस प्रकार भू-लोक में पद-प्रतिष्ठा का एक निश्चित क्रम है उसी प्रकार स्वर्ग में भी एक पद व्यवस्था होती है। सामान्यत: देवराज इन्द्र को स्वर्ग के राजा के रूप में सर्वोच्च माना जाता है लेकिन वास्तविक रूप में देवराज इन्द्र का स्थान ब्रह्माण्ड में अन्तिम है।

ब्रह्माण्ड में पद व्यवस्था-

१. परमेष्ठी पद (ब्रह्मा)
२. प्रजापति नायक पद
३. प्रजापति पद
४. मनु पद
५. इन्द्र पद

-ज्योतिर्विद् पं. हेमन्त रिछारिया

बुधवार, 5 जुलाई 2017

"गुरू वही जो राम मिलावे"

शास्त्र का कथन है-
 "गुरू वही जो विपिन बसावे, गुरू वही जो सन्त सिवावे।
  गुरू वही जो राम मिलावे, इन करनी बिन गुरू ना कहावे॥"
इन वचनों का सार है कि गुरू वही है जो "राम" अर्थात् उस परम तत्व से साक्षात्कार कराने में सक्षम हो, गुरू अर्थात् जागा हुआ व्यक्तित्व। इसी प्रकार शिष्य वह है जो जागरण में उत्सुक हो। गुरू ईश्वर और जीव के बीच ठीक मध्य की कड़ी है, इसलिए अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। मनुष्य के जीवन में गुरू की उपस्थिति बड़ी आवश्यक है। गुरू ही वह द्वार है जहाँ से जीव परमात्मा में प्रवेश करता है। गुरू निन्द्रा व जागरण दोनों अवस्थाओं का साक्षी होता है। सिद्ध सन्त सहजो कहती हैं कि "राम तजूँ पर गुरू ना बिसारूँ" अर्थात् मैं उस परम तत्व का भी विस्मरण करने को तैयार हूँ लेकिन गुरू का नहीं क्योंकि यदि गुरू का स्मरण है; गुरू समीप है तो उस परम तत्व से साक्षात्कार पुन: सम्भव है। मेरे देखे गुरू व्यक्ति नहीं अपितु एक अवस्था का नाम है ऐसी अवस्था जब कोई रहस्य जानने को शेष नहीं रहा किन्तु फ़िर भी करूणावश वह इस जगत् में है, जो जाना गया है उसे बाँटने के लिए है। जिस प्रकार सूर्य के प्रकाश को सीधे देखना आँखों के लिए हानिकारक है, उसके लिए एक होना माध्यम आवश्यक है। ठीक उसी प्रकार ईश्वर का साक्षात्कार भी जीव सीधे करने में सक्षम नहीं उसके लिए भी गुरू रूपी माध्यम आवश्यक है क्योंकि ध्यान-समाधि में जब वह घटना घटेगी और परमात्मा अपने सारे अवगुँठन हटा तत्क्षण प्रकट होगा तो उस घटना को समझाएगा कौन! क्योंकि जीव इस प्रकार के साक्षात्कार का अभ्यस्त नहीं वह तो बहुत भयभीत हो जाएगा जैसे अर्जुन भयभीत हुआ था भगवान कृष्ण का विराट रूप देखकर, इसलिए गुरू का समीप होना आवश्यक है। गुरू के माध्यम से ही परमात्मा की थोड़ी-थोड़ी झलक मिलनी शुरू होती है। परमात्मा के आने की ख़बर का नाम ही गुरू है। जब गुरू जीवन में आ जाएँ तो समझिए कि अब देर-सवेर परमात्मा आने ही वाला है। एक शब्द हमारी सामाजिक परम्परा में है "गुरू बनाना", यह बिल्कुल असत्य व भ्रामक बात है क्योंकि यदि जीव इतना योग्य हो जाए कि अपना गुरू स्वयं चुन सके तो फ़िर गुरू की आवश्यकता ही नहीं रही। सत्य यही है कि गुरू ही चुनता है जब शिष्य तैयार होता है शिष्य होने के लिए। गुरू की ही तरह शिष्य होना भी कोई साधारण बात नहीं है, शिष्य अर्थात् जो जागरण में उत्सुक हो। वर्तमान समय में गुरू व शिष्य दोनों की परिभाषाएँ बदल गई हैं। आज अधिकांश केवल सामाजिक प्रतिष्ठा के लिए गुरू-शिष्य परम्परा चल रही है। वर्तमान समय में गुरू यह देखता है कि सामाजिक जीवन में उसके शिष्य का कद कितना बड़ा और शिष्य यह देखता है कि उसका गुरू कितना प्रतिष्ठित है। जागरण की बात विस्मृत कर दी जाती है, गुरू इस बात की फ़िक्र ही नहीं करता कि वह जिसे शिष्य के रूप में स्वीकार कर रहा है व जागरण में उत्सुक भी है या नहीं। वास्तविकता यह है कि जब शिष्य की ईश्वरानुभूति की प्यास प्रगाढ़ हो जाती है तब गुरू उसे परमात्मा रूपी अमृत पिलाने स्वयं ही उसके जीवन में उपस्थित हो जाते हैं। हमारे सनातन धर्म ने भी ईश्वर को रस रूप कहा है "रसौ वै स:"। गुरू व शिष्य दोनों ही इस जगत् की बड़ी असाधारण घटनाएँ है क्योंकि यह एकमात्र सम्बन्ध है जो विशुद्ध प्रेम पर आधारित है और जिसकी अन्तिम परिणति परमात्मा है।

-ज्योतिर्विद् पं. हेमन्त रिछारिया

रविवार, 2 जुलाई 2017

प्रभु कभी नहीं सोते


वैदिक पँचांग अनुसार आज विष्णुशयन एकादशी है अर्थात् भगवान् के शयन का प्रारम्भ । देवशयन के साथ ही "चातुर्मास" भी प्रारम्भ हो जाता है। देवशयन के साथ ही विवाह, गृहारम्भ, गृहप्रवेश, मुण्डन जैसे माँगलिक प्रसंगो पर विराम लग जाता है। हमारे सनातन धर्म की खूबसूरती यही है कि हमने देश-काल-परिस्थितिगत व्यवस्थाओं को भी धर्म व ईश्वर से जोड़ दिया। धर्म एक व्यवस्था है और इस व्यवस्था को सुव्यवस्थित रूप से प्रवाहमान रखने हेतु यह आवश्यक था कि इसके नियमों का पालन किया जाए। किसी भी नियम को समाज केवल दो कारणों से मानता है पहला कारण है- "लोभ" और दूसरा कारण है-"भय", इसके अतिरिक्त एक तीसरा व सर्वश्रेष्ठ कारण भी है वह है-"प्रेम" किन्तु उस आधार को महत्त्व देने वाले विरले ही होते हैं। यदि हम वर्तमान समाज के ईश्वर को "लोभ" व "भय" का संयुक्त रूप कहें तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। हिन्दू धर्म के देवशयन उत्सव के पीछे आध्यात्मिक कारणों से अधिक देश-काल-परिस्थितगत कारण हैं। इन दिनों वर्षा ऋतु प्रारम्भ हो चुकी होती है सामान्य जन-जीवन वर्षा के कारण थोड़ा अस्त-व्यस्त व गृहकेन्द्रित हो जाता है। यदि आध्यत्मिक परिप्रेक्ष्य में देखें तो देवशयन कभी होता ही नहीं। जिसे निन्द्रा छू ना सके और जो व्यक्ति को निन्द्रा से जगा दे वही तो ईश्वर है। विचार कीजिए परमात्मा यदि सो जाए तो इस सृष्टि का सन्चालन कैसे होगा! "ईश्वर" निन्द्रा में भी जागने वाले तत्व का नाम है और उसके प्राकट्य मात्र से व्यक्ति भी निन्द्रा में जागने में सक्षम हो जाता है। गीता में भगवान् कृष्ण कहते हैं - "या निशा सर्वभूतानाम् तस्याँ जागर्ति सँयमी"  अर्थात् जब सबके लिए रात्रि होती है योगी तब भी जागता रहता है। इसका आशय यह नहीं कि शारीरिक रूप से योगी सोता नहीं; सोता है किन्तु वह चैतन्य के तल पर जागा हुआ होता है। निन्द्रा का नाम ही सँसार है और जागरण का नाम "ईश्वर"। आप स्वयं विचार कीजिए कि वह परम जागृत तत्व कैसे सो सकता है! देवशयन; देवजागरण ये सब व्यवस्थागत बातें हैं। वर्तमान पीढ़ी को यदि धर्म से जोड़ना है तो उन्हें इन परम्पराओं के छिपे उद्देश्यों को समझाना आवश्यक है।

-ज्योतिर्विद् पं. हेमन्त रिछारिया
सम्पर्क: astropoint_hbd@yahoo.com


बुधवार, 28 जून 2017

युधिष्ठिर का नारी जाति को श्राप-


महाभारत का प्रसंग है। जब अर्जुन द्वारा अंगराज कर्ण का वध कर दिया गया तब पाण्डवों की माता कुन्ती कर्ण के शव पर उसकी मृत्यु का विलाप करने पहुँची। अपनी माता को कर्ण के शव पर विलाप करते देख युधिष्ठिर ने कुन्ती से प्रश्न किया कि "आप हमारे शत्रु की मृत्यु पर विलाप क्यों कर रहीं है?" तब कुन्ती ने युधिष्ठिर को कहा कि "ये तुम्हारे शत्रु नहीं, ज्येष्ठ भ्राता हैं।" यह सुनकर युधिष्ठिर अत्यन्त दु:खी हुए। उन्होंने माता कुन्ती से कहा कि आपने इतनी बड़ी बात छिपाकर हमें हमारे ज्येष्ठ भ्राता का हत्यारा बना दिया। तत्पश्चात् समस्त नारी जाति श्राप देते हुए युधिष्ठिर बोले "मैं आज से समस्त नारी जाति को श्राप देता हूँ कि वे अब चाहकर भी कोई बात अपने ह्रदय में नहीं छिपा सकेंगी।" जनश्रुति है कि धर्मराज युधिष्ठिर के इसी श्राप के कारण स्त्रियाँ कोई भी बात छिपा नहीं सकतीं।

-ज्योतिर्विद् पं. हेमन्त रिछारिया

सोमवार, 5 जून 2017

ईश्वर को लाभ की दृष्टि से ना देखें

कल निर्जला एकादशी थी। कई श्रद्धालुओं ने निर्जल रहकर व्रत रखा अर्थात् अन्न-जल ग्रहण किए बिना उपवास। मैंने एक मित्र से पूछा कि निर्जला एकादशी का क्या महत्त्व होता है? तो उनका उत्तर था कि इस व्रत को रखने से वर्षभर की एकादशी व्रत का पुण्य प्राप्त हो जाता है। मैं आश्चर्यचकित था कि मनुष्य कितना चतुर है वह परमात्मा की भक्ति भी सांसारिक दृष्टिकोण से करता है। मेरे देखे ईश्वर को कभी लाभ की दृष्टि से नहीं देखना चाहिए। ईश्वर को सदैव प्रेम की दृष्टि से देखना चाहिए। भला ईश्वर की कृपा प्राप्ति के लिए ये हिसाब-किताब उपाय क्यों जब आपकी एक प्रेमासिक्त पुकार ही पर्याप्त है। बुद्ध को तत्व साक्षात्कार उपवास के कारण नहीं हुआ, तब हुआ जब उन्होंने ये सब व्रत त्याग दिए। ईश्वर आपके किए गए व्रतों-कर्मकाण्डों का आधीन नहीं हैं, ईश्वर तो बस आपके प्रेम के आधीन है। अत: ईश्वर के आराधन में प्रेम को प्रमुख रखिए लाभ को नहीं। यहाँ मेरा उद्देश्य किसी की श्रद्धा को आहत करना नहीं अपितु उस श्रद्धा को परिशुद्ध करना है। व्रत, पूजा, नाम जप, तीर्थयात्रा आदि में प्रेम ही केन्द्र में रहे शेष सब परिधि बन जाए तो ही भक्ति अन्यथा सब व्यापार।

-ज्योतिर्विद् पं. हेमन्त रिछारिया

रविवार, 4 जून 2017

उपचार पूजा


पूजा करना सनातन धर्म का अभिन्न अंग है। ईश्वर ने हमें जीवन दिया है, हम उसे कैसे धन्यवाद दें! इसके समाधान हेतु हमारे शास्त्रों ने दैनिक पूजा का विधान बताया है। पूजा करने के विलग-विलग उद्देश्य होते हैं उनमें सर्वश्रेष्ठ व पवित्र उद्देश्य है ईश्वर के प्रति अपना प्रेम व कृतज्ञता ज्ञापित करना। पूजा का तरीका व्यक्ति की श्रद्धा पर निर्भर है लेकिन हमारे शास्त्रों में पूजा करने के कुछ अनिवार्य अंग बताए गए हैं जिन्हें "पंचोपचार","दशोपचार" व "षोडषोपचार" पूजन कहा जाता है। आईए जानते हैं कि इन उपचार पूजनों के अन्तर्गत क्या अनिवार्य हैं।

पंचोपचार पूजन-
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1. गन्ध 2. पुष्प 3. धूप 4. दीप 5. नैवेद्य

दशोपचार-
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1. पाद्य 2. अर्घ्य 3. आचमन 4. स्नान 5. वस्त्र 6. गन्ध 7. पुष्प 8. धूप 9. दीप 10. नैवेद्य

षोडशोपचार-
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1. पाद्य 2. अर्घ्य 3. आचमन 4. स्नान 5. वस्त्र 6. आभूषण 7. गन्ध 8. पुष्प 9. धूप 10. दीप 11. नैवेद्य 12. आचमन 13. ताम्बूल 14. स्तवन पाठ 15.तर्पण 16.नमस्कार

-ज्योतिर्विद पं. हेमन्त रिछारिया 



शनिवार, 3 जून 2017

क्या भूत-प्रेत होते हैं?


भूत-प्रेत का नाम सुनते ही मन में भय व दहशत व्याप्त हो जाती है। तार्किक लोग भूत-प्रेत के अस्तित्व को सिरे से नकारते हैं वहीं कुछ अन्धविश्वासी सामान्य मनोरोगों को भी भूत-प्रेत से जोड़कर देखते हैं। लेकिन क्या सचमुच भूत-प्रेत होते हैं इस प्रश्न का उत्तर शायद ही किसी को संतुष्ट कर पाता हो। आज हम इसी रहस्य को समझने का प्रयास करेंगे। प्रारम्भिक दौर में विज्ञान भूत-प्रेत के अस्तित्व को खारिज करता आया है लेकिन वर्तमान दौर में वह इन्हें एक दिव्य उर्जा के रूप में स्वीकार करने लगा है। हमारे मतानुसार इस रहस्य को विज्ञान कभी भी नहीं जान पाएगा ऐसा इसलिए क्योंकि विज्ञान मशीनी उपकरणों के माध्यम से चेतना को जानने का प्रयास करता है जबकि यह चेतनाएँ जिस एकमात्र उपकरण के माध्यम से जानी जा सकती हैं वह उपकरण है मनुष्य शरीर। हमारा भौतिक शरीर जिसे स्थूल शरीर भी कहा जाता है, कई शरीरों का संग्रहीत रूप है। हमारे स्थूल शरीर के भीतर अन्य शरीरों की पर्तें होती हैं। इन शरीरों को सूक्ष्म शरीर, आकाश शरीर, मनस शरीर, आत्मिक शरीर, ब्रह्म शरीर व निर्वाण शरीर कहा जाता है। जिसे सामान्य भाषा में भूत-प्रेत कहा या समझा जाता है वह वास्तविक रूप में मनुष्य का सूक्ष्म शरीर होता है। इस सूक्ष्म शरीर में मनुष्य की सारी भावनाएँ, मन, स्मृतियाँ व अन्य शरीर संग्रहीत रहते हैं। सामान्य मृत्यु में व्यक्ति का केवल भौतिक या स्थूल शरीर ही नष्ट होता है। सूक्ष्म शरीर आगे की यात्रा के लिए बचा रह जाता है। इसी सूक्ष्म शरीर के कारण मनुष्य को अगला जन्म प्राप्त होता है। यह सूक्ष्म शरीर आवागमन का आधार है। सूक्ष्म शरीर जब तक भौतिक शरीर धारण नहीं कर लेता है तब तक उसकी संसार में स्थिति व उपस्थिति को ही भूत-प्रेत के नाम से जाना जाता है। सरल शब्दों में भूत-प्रेत वास्तव में मनुष्य का सूक्ष्म शरीर ही है। सामान्यत: साधारण जीवात्माएँ मृत्यु के उपरान्त बहुत शीघ्र ही नया जन्म ले लेती हैं लेकिन कुछ असाधारण जीवात्माएँ; जिनमें बहुत श्रेष्ठ जिन्हें हम देवताओं की श्रेणी में रखते हैं और बहुत निकृष्ट जिन्हें हम भूत-प्रेत की श्रेणी में रखते हैं,अपने स्वभावगत कारणों व वासनाओं के कारण नया जन्म लेने में विलम्ब करती हैं। इस काल में ये जीवात्माएँ सूक्ष्म शरीर के रूप में संसार में विद्यमान रहती हैं। कुछ विशेष परिस्थितियों में ये जीवात्माएँ साँसारिक मनुष्यों के सम्पर्क में आकर अपनी उपस्थिति का अहसास भी कराती हैं लेकिन ये बहुत ही असाधारण परिस्थितियों में होता है। जिसे प्रचलित भाषा में बाबा,देव,माता,भूत-प्रेत इत्यादि नामों से जाना जाता है। अक्सर समाज में भूत-प्रेत का भय दिखाकर जनमानस का शोषण किया जाता है। यह सर्वथा अनुचित है। सूक्ष्म शरीर का साँसारिक क्रियाकलापों में हस्तक्षेप बहुत ही असाधारण परिस्थितियों में होता है। अत: ना तो इन सूक्ष्म शरीरों से अत्यधिक भयभीत होने की आवश्यकता है और ना इनके अस्तित्व को सिरे से नकारना ही उचित है।

-ज्योतिर्विद् पं. हेमन्त रिछारिया

सोमवार, 22 मई 2017

महाभारत का महागणित

महाभारत का नाम सुनते ही जो सबसे पहली बात ध्यान में आती है वह यह कि इस युद्ध में लाखों लोगों ने अपने प्राणों की आहूति दी थी। कुछ विद्वानों के अनुसार तो महाभारत के युद्ध में करोड़ों सैनिक मारे गए थे। हालांकि उस काल में इस देश की जनसंख्या के अनुपात में यह बात अतिश्योक्ति ही लगती है लेकिन एक बात निश्चित है कि महाभारत के युद्ध में मारे गए सैनिकों की कोई प्रामाणिक संख्या आज तक बताई नहीं जा सकी लेकिन सामरिक ग्रन्थों में अक्षौहिणी सेना का जो वर्णन है उस आधार पर आज मैं आपको महाभारत युद्ध में मारे गए सैनिकों की प्रामाणिक संख्या बताने जा रहा हूँ। यह संख्या मैंने गणना के आधार प्राप्त की है। आप स्वयं भी इसकी गणना कर सकते हैं।
जैसा कि आपको विदित है महाभारत के युद्ध में पाण्डवों के पास 7 अक्षौहिणी सेना व कौरवों के पास 11 अक्षौहिणी सेना थी। आईए जानते हैं कि 1 अक्षौहिणी सेना में क्या-क्या होता है।
1 अक्षौहिणी सेना-
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महाभारत काल में सेना की सबसे छोटी ईकाई को "पती" कहते थे।
1 पती के अन्तर्गत होता था-
1 रथ, 1 हाथी, 3 घोड़े एवं 5 पैदल सैनिक।
3 पति को 1 सेनामुख कहा जाता था अर्थात्...
3 पति = 1 सेनामुख
3 सेनामुख = 1 गुल्म
3 गुल्म = 1 गण
3 गण = 1 वाहिनी
1 वाहिनी = 1 पृतना
3 पृतना = 1 चमू
3 चमू = 1 अनीकिनी
10 अनीकिनी = 1 अक्षौहिणी सेना
अत: उपर्युक्त गणना के आधार पर 1 अक्षौहिणी सेना में होते हैं-
रथ संख्या-  21,870
हाथी-  21,870
घोड़े-  65,610
पैदल सैनिक- 1,09,350
अत: इस आधार पर महाभारत के युद्ध में प्रयुक्त हुई कुल 18 अक्षौहिणी सेना में थे-
कुल रथ- 3,93,660
कुल हाथी- 3,93,660
कुल घोड़े- 11,80,980
पैदल सैनिक- 19,68,300
अब यदि पैदल सैनिक+रथी+घुड़सवार+गजसवार इन सभी को सम्मिलित किया जाए तो 18 अक्षौहिणी सेना के कुल सैनिकों व योद्धाओं की संख्या बनती है-

47 लाख 43 हज़ार 920 योद्धा....ये सभी महाभारत के युद्ध में मारे गए थे।


निवेदन- उपर्युक्त संख्या अक्षौहिणी सेना की व्यवस्था के आधार पर प्राप्त हुई है जो पूर्णत: सत्य तो नहीं किन्तु किसी भी अतिश्योक्तिपूर्ण संख्या को परखने की कसौटी अवश्य है।

-ज्योतिर्विद् पं. हेमन्त रिछारिया
प्रारब्ध ज्योतिष परामर्श केन्द्र (म.प्र.)

रविवार, 21 मई 2017

भारत का नामकरण


आप सभी को विदित है हमारे देश का नाम "भारत" चक्रवर्ती सम्राट महाराज भरत के नाम पर पड़ा है किन्तु क्या आप यह जानते हैं कि ये भरत कौन थे? निश्चय ही आपका उत्तर होगा "दुष्यन्त-शकुन्तला के पुत्र", लेकिन यह असत्य है। ये बात सही है कि दुष्यन्त-शकुन्तला के पुत्र का नाम भी भरत था किन्तु इन भरत के नाम पर इस देश का नाम भरत नहीं रखा गया। इस देश का नाम भारत जिन चक्रवर्ती सम्राट महाराज भरत के नाम पर रखा गया वे ऋषभदेव-जयन्ती के पुत्र थे। ये वही ऋषभदेव हैं जिन्होंने जैन धर्म की नींव रखी। ऋषभदेव महाराज नाभि व मेरूदेवी के पुत्र थे। महाराज नाभि और मेरूदेवी की कोई सन्तान नहीं थी। महाराज नाभि ने पुत्र की कामना से एक यज्ञ किया जिसके फ़लस्वरूप उन्हें ऋषभदेव पुत्र रूप में प्राप्त हुए। ऋषभदेव का विवाह देवराज इन्द्र की कन्या जयन्ती से हुआ। ऋषभदेव व जयन्ती के सौ पुत्र हुए जिनमें सबसे बड़े पुत्र का नाम "भरत" था। भरत चक्रवर्ती सम्राट हुए। इन्हीं चक्रवर्ती सम्राट महाराज भरत के नाम पर इस देश का नाम "भारत" पड़ा। इससे पूर्व इस देश का नाम "अजनाभवर्ष" या "अजनाभखण्ड" था क्योंकि महाराज नाभि का एक नाम "अजनाभ" भी था। अजनाभ वर्ष जम्बूद्वीप में स्थित था, जिसके स्वामी महाराज आग्नीध्र थे। आग्नीध्र स्वायम्भुव मनु के पुत्र प्रियव्रत के ज्येष्ठ पुत्र थे। प्रियवत समस्त भू-लोक के स्वामी थे। उनका विवाह प्रजापति विश्वकर्मा की पुत्री बर्हिष्मती से हुआ था। महाराज प्रियव्रत के दस पुत्र व एक कन्या थी। महाराज प्रियव्रत ने अपने सात पुत्रों को सप्त द्वीपों का स्वामी बनाया था, शेष तीन पुत्र बाल-ब्रह्मचारी  थे। इनमें आग्नीध्र को जम्बूद्वीप का स्वामी बनाया गया था। श्रीमदभागवत (५/७/३) में कहा है कि-
"अजनाभं नामैतदवर्षभारतमिति यत आरभ्य व्यपदिशन्ति।"
इस बात के पर्याप्त प्रमाण हमें शिलालेख एवं अन्य धर्मंग्रन्थों में भी मिलते हैं। अग्निपुराण में स्पष्ट लिखा है-
"ऋषभो मरूदेव्यां च ऋषभाद् भरतोऽभवत्।
ऋषभोऽदात् श्री पुत्रे शाल्यग्रामे हरिंगत:,
भरताद् भारतं वर्ष भरतात् सुमतिस्त्वभूत॥"
वहीं स्कन्द पुराण के अनुसार-
"नाभे: पुत्रश्च ऋषभ ऋषभाद भरतोऽभवत्।
तस्य नाम्ना त्विदं वर्षं भारतं चेति कीर्त्यते॥"
(माहेश्वर खण्ड)
इसका उल्लेख मार्कण्डेय पुराण व भक्तमाल आदि ग्रन्थों में भी मिलता है। अत: दुष्यन्त-शकुन्तला के पुत्र भरत के नाम पर इस देश का नाम "भारत" होना केवल एक जनश्रुति है सत्य नहीं।

-ज्योतिर्विद् पं हेमन्त रिछारिया

रविवार, 30 अप्रैल 2017

वस्तुएं आवश्यकता की पूर्ती करने वाली हों, अहंकार की नहीं-

कल मैं एक यात्रा पर था। मैंने ट्रेन में अपने आसपास देखा तो पाया लगभग सभी यात्रियों के पास मोबाईल था। अधिकांश के पास बड़े मंहगे मोबाईल हैण्डसेट थे वहीं कुछ के पास सामान्य। आश्चर्य की बात तो यह थी कि बात दोनों ही से एक समान हो रही थी। मेरे देखे हमारे दैनिक जीवन की वस्तुएं हमारी आवश्यकता की पूर्ती करने वाली होना चाहिए ना कि हमारे अहंकार की पूर्ती करने वाली, यही धार्मिकता का लक्षण है।

-ज्योतिर्विद पं. हेमन्त रिछारिया

आईए परमधन खोजें-

नोटबन्दी के निर्णय को यदि हम आध्यात्मिक परिप्रेक्ष्य में देखें तो इस फ़ैसले ने हमें आईना दिखाया है। आज हमें उस तथाकथित मूल्यवान समझे जाने वाले धन की हकीकत का पता चला है जिसके लिए हम कभी-कभी अपनी आत्मा तक को दांव पर लगा देते हैं। एक कागज़ के पुर्ज़े पर लिखे कुछ शब्दों से वे कागज़ के टुकड़े महज़ कागज़ ही बनकर रह गए जिनके लिए हम सब दिन-रात आपाधापी कर रहे थे। ज़रा सोचिए भला हम इस धन के लिए अपने जीवन को खपाए दे रहे थे जिसे एक व्यक्ति; एक आदेश "व्यर्थ" और मूल्यहीन बना सकता है! यदि हां तो हमसे अधिक मूढ़ इस जगत में खोजना मुश्किल है। आईए अब थोड़ा उस परमधन की खोज करें जिसे संसार की कोई शक्ति मूल्यहीन नहीं बना सकती। वह धन हमें जन्म से मिला ही हुआ है बस उस तिजोरी को खोलना है जिसमें वह धन है। वह तिजोरी खुलती है- ध्यान व प्रेम से, फिर प्राप्त होता है वह परमधन जिसके बारे में मीराबाई कहती हैं-"राम रतन धन पायो।"

-ज्योतिर्विद पं. हेमन्त रिछारिया

रविवार, 5 मार्च 2017

"कही जाए सो व्यथा, बही जाए सो कथा"

आज हमारे चहुँओर कहीं ना कहीं भागवत कथा या रामकथा का आयोजन होता हुआ दिखाई देता है। दूसरी ओर समाज में निरन्तर कुछ ऐसी घटनाएँ भी घटित होती रहती हैं जिनसे यह प्रतीत होता है कि हमारा समाज शीघ्रता से अनैतिकता की ओर अग्रसर हो रहा है। समाज में अनैतिकता को यदि रोग की संज्ञा दी जाए और इन कथाओं व उपदेशों को औषधि की तो निष्कर्ष यह निकलता है कि औषधि यदि कारगर है तो रोग नष्ट होना चाहिए। यदि रोग नष्ट होने के स्थान पर बढ़ रहा है तो औषधि ठीक नहीं है। मेरे देखे आज के अधिकांश कथावाचक अभिनेता हैं; साधक नहीं। अभिनेता होना एक बात है, साधक होना बिल्कुल दूसरी बात। कथा समय के ३ घण्टे अभिनय को कथा के अनुरूप साधा जा सकता है किन्तु सम्पूर्ण जीवन को कथाओं के बताए अनुसार परिवर्तित कर लेना बड़ी साधना है। आजकल के अधिकतर सदगुरू लोगों को जगाते कम; सुलाते अधिक हैं। इसके पीछे दो मुख्य कारण है पहले तो वे खुद ही सोए हुए हैं क्योंकि जो स्वयं ही सोया है वह किसी और क्या जगाएगा और दूसरा जिस दिन उन्होंने लोगों को जगाना प्रारम्भ कर दिया उसी दिन से उनका विरोध होना शुरू हो जाएगा क्योंकि शारीरिक नींद ही इतनी मीठी और गहरी होती है तो चित्त की निद्रा की तो बात ही क्या, जब उसे तोड़ा जाता है तो बहुत कष्ट होता है इसीलिए उस निद्रा को तोड़ने वाले का विरोध होना स्वाभाविक है। विरले ही इस प्रकार की साधना में प्रवृत्त हो पाते हैं। जिस प्रकार यदि हम किसी पात्र को किसी वस्तु से भरते जाएं और जब वह पात्र पूर्णरूपेण भर जाए तब क्या होगा! वह वस्तु उस पात्र के ऊपर से बहने या झलकने लगेगी। ठीक उसी प्रकार जब हम अपने अन्त:करण को परमात्मतत्व रूपी गुण से भरते जाते हैं और हमारा यह अन्तर्घट जब पूर्ण हो जाता है तब जो झलकने लगता है वही सच्चा उपदेश व सही कथा है। मेरे देखे जो सप्रयास कही जाए वह व्यथा, जो अनायास बही जाए वह कथा है। जब साधक की वाणी निमित्त मात्र बनकर उपकरण का कार्य करती है तब मुख से जो निकलता है वह दिव्य होता है क्योंकि वह अलौकिक होता है। तब वह किसी और तल का; किसी और जगत का होता है, साधक तो केवल एक निमित्त और उपकरण मात्र होता है। जिस दिन इस प्रकार कथाएं व उपदेश कहे जाएंगे उसी दिन से समाज परिवर्तित होना प्रारम्भ हो जाएगा। !! राधे...राधे....!!

-ज्योतिर्विद पं. हेमन्त रिछारिया