रविवार, 15 मार्च 2015

फ़ूलों में भी है संवेदनाएं

एक दिन मेरे मित्र जो श्रीविद्या के साधक हैं वे ढेर सारे पलाश के फ़ूलों से भरी थैली (जिसमें कुछ अधखिली कलियां भी शामिल थीं) लिए मुझसे मिलने आए। मैंने जब इतने फ़ूलों का प्रायोजन उनसे पूछा तो कहने लगे कि इन फ़ूलों से भगवती का अर्चन करूंगा। मैंने पुनः पूछा कि ये कितने फ़ूल हैं? उन्होंने उत्तर दिया कि-सवा लाख! ये सुनते ही मैं चौंक पड़ा। मैंने उनसे कहा कि आपने सिर्फ़ अपने अर्चन के लिए प्रकृति का कितना नुकसान कर दिया, आखिर प्रकृति भी तो परमात्मा का ही अंग है। इसे नुकसान पहुंचाना परमात्मा को पीड़ा पहुंचाना है, मेरे देखे यह उचित नहीं है। चूंकि उन्होंने दिन भर बड़ा अथक परिश्रम करके इन फ़ूलों को तोड़ा था और स्वभाव से वे पंडित थे सो उन्होंने मेरी इस बात का कड़ा विरोध किया। वो मुझे समझाने लगे कि फ़ूल तो ईश्वर पर चढ़ाने के लिए ही होते हैं। मैंने कहा आपको नहीं लगता कि डाल पर खिले फ़ूल पहले ही प्रकृति ने ईश्वर पर चढ़ा दिए अब और क्या चढ़ाना? और चढ़ाना ही है तो डाल से गिरे हुए फ़ूलों को चुनकर चढ़ाओं किंतु शास्त्रों में इस प्रकार की भ्रामक बातें लिखी हैं कि सवा लाख फ़ूल चढ़ाने से यह होगा, सवा लाख बेलपत्र चढ़ाने से वह होगा सो सब निकल पड़ते है पर्यावरण को हानि पहुंचाने। इस पर वे कहने लगे क्या भगवती पर फ़ूल नहीं चढ़ाएं? प्रत्युत्तर में मैंने कहा कि कोई फ़ूल का पौधा रोपित कर दो जब इसमें सवा लाख फ़ूल आएंगे तो आपका अर्चन पूर्ण हो जाएगा। इसी प्रकार की भ्रामक बातों के कारण ही हमारे धर्म पर कटाक्ष करने का अवसर अक्सर लोगों को मिल जाता है। मेरे देखे संख्या नहीं भाव महत्वपूर्ण है। यदि प्रेमपूर्ण ह्रदय से मात्र एक पांखुरी अर्पित कर दी जाए तो सवा लाख क्या सवा अरब के बराबर हो जाती है। आपने सुना है जब भगवान कृष्ण को उनकी रानियों ने अपने आभूषणों से तौलना चाहा तो वे नहीं तुले जब एक तुलसी दल पलड़े पर रखा तब भगवान आसानी से तुल गए। मगर पंडित यदि शास्त्रों से मुक्त हो जाए तो संत हो जाए। शास्त्रों में काम की बातें थोड़ी हैं और जो हैं उन्हें समझना और भी कठिन। भारत के प्रसिद्ध वैज्ञानिक श्री जगदीशचंद्र बोस ने क्रैस्कोग्राफ़ नामक यंत्र बनाकर एक अनुसंधान किया जिसमें उन्होंने यह सिद्ध किया कि पेड़-पौधों में भी संवेदनशील स्नायु तंत्र होता है और उनका जीवन भी विभिन्न भावनाओं से युक्त होता है। प्रेम,घृणा,भय,सुख,दुःख,आनन्द,मूर्छा के प्रति असंख्य प्रकार की प्रतिक्रियाओं की भावानुभूति जिस प्रकार सब प्राणियों में होती है उसी प्रकार पेड़-पौधों में भी होती है। सनातन धर्म ने बड़ी मूल्यवान पहल की जो पत्थर की ईश्वर की प्रतिमा बनाई। उसके पीछे उद्देश्य यह था हमारी दृष्टि इतनी संवेदनशील हो जाए कि पाषाण में भी सजीव ईश्वर का दर्शन कर सके किंतु अभी तक कोमल फ़ूलों में भी जिन लोगों को संवेदना नज़र नहीं आ रही वे क्या पाषाण में इसे देख पाने में समर्थ होंगे इसमें मुझे संदेह है।

-ज्योतिर्विद हेमन्त रिछारिया

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