रविवार, 2 नवंबर 2014

प्राण-प्रतिष्ठा का अर्थ-

पंडितजन कहते हैं कि हम भगवान की प्राण-प्रतिष्ठा कर रहे हैं। भगवान की प्राण-प्रतिष्ठा..! आश्चर्य की बात है। जो परमात्मा इस जगत के समस्त प्राणियों में प्राणों का संचार करता है हम उस परमात्मा में प्राणों की प्रतिष्ठा कर रहे हैं। कैसी मूढ़तापूर्ण बात है। मेरे देखे यदि शास्त्र गलत हाथों में पड़ जाए तो वह शस्त्र से भी ज़्यादा खतरनाक हो जाता है। यदि नर, नारायण के प्राणों की प्रतिष्ठा करने में सक्षम हो जाए तो वह नारायण से भी बड़ा हो जाएगा क्योंकि जन्म देने वाला सदा ही जातक से बड़ा होता है। इसीलिए नारायण की नर लीलाओं में नारायण को जन्म देने वाले माता-पिता के आगे स्वयं नारायण झुके हैं। ये बड़ी गहरी बात है। शास्त्रों में किसी पाषाण प्रतिमा या पार्थिव की प्राण प्रतिष्ठा करना बहुत सांकेतिक है। यहां प्राण प्रतिष्ठा से आशय केवल इतना ही है कि हमें एक ना एक दिन अपनी इस पंचमहाभूतों से बनी देह-प्रतिमा में परमात्मा; जो कि पहले से ही इसमें उपस्थित है, उसका साक्षात्कार कर उसे इस देह में प्रतिष्ठित करना है; प्रकट करना है। मूर्तियों में प्राण-प्रतिष्टा का उपक्रम करना इसी बात का स्मरण मात्र है इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं।

-ज्योतिर्विद पं. हेमन्त रिछारिया

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