रविवार, 9 नवंबर 2014

अभिमान और स्वाभिमान

अक्सर अभिमान और स्वाभिमान में अंतर को लेकर चर्चाएं सुनने को मिलती हैं। मेरे देखे अभिमान (अहंकार) और स्वाभिमान में बड़ा ही सूक्ष्म अंतर है। जब अभिमान का भाव स्वयं के प्रति होता है यह अंहकार कहलाता है और जब यह भाव समष्टि के प्रति होता है तब स्वाभिमान बन जाता है। कोई भी भाव जिसके केन्द्र में “मैं” और “मेरा” है वह अहंकार के अतिरिक्त कुछ और हो ही नहीं सकता, चाहे यह भाव परमात्मा के प्रति ही क्यों ना हो। मूल रूप से “मैं” का भाव ही अहंकार की जड़ है। अहंकार के रास्ते बड़े सूक्ष्म होते हैं कभी यह त्याग के रास्ते आता है, कभी विनम्रता के, कभी भक्ति के, तो कभी स्वाभिमान के, इसकी पहचान करने का एक ही तरीका है जहां भी “मैं” का भाव उठे वहां अहंकार जानना चाहिए इसीलिए हमारे शास्त्रों मे “मैं” भाव के त्याग पर इतना बल दिया है। मेवलाना जलालुद्दीन रूमी की कविता में प्रेमिका अपने “मैं” भाव वाले प्रेमी को वापस लौटा देती है, द्वार नहीं खोलती जब तक कि वह “तू” नहीं बोलता। किसी संत ने क्या खूब कहा है-
                    “तूं तूं करता तू भया, मुझमें रही ना हूं
                     वारी तेरे नाम की, जित देखूं तित तूं”।
इस संसार में एक ही है उसे चाहे जो कह लें “परमात्मा” “अल्लाह” “अस्तित्व” “शून्य” “मोक्ष” सिर्फ़ नामों का भेद है। हिंदू धर्म में “अद्वैत” दर्शन मिलता है। “अद्वैत” बड़ा बहुमूल्य शब्द है जिसका अर्थ होता है-“दो नहीं” क्योंकि “एक” कहने के लिए भी “दो” का होना ज़रूरी है, नहीं तो “एक” थोथा होगा। जिस प्रकार जहां केवल सत्य बोलने की ही स्वतंत्रता हो वहां सत्य का क्या मूल्य,  तो मनीषियों ने कहा “दो नहीं” अर्थात “अद्वैत”। हमें इतनी गहराई में जाने की आवश्यकता नहीं बस “मैं”  की पहचान और विसर्जन करते जाएं, अहंकार से मुक्त होते  जाएं।

-ज्योतिर्विद हेमन्त रिछारिया

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