शुक्रवार, 26 सितंबर 2014

आचमन


“एवं स ब्राह्मणों नित्यमुस्पर्शनमाचरेत्।
ब्रह्मादिस्तम्बपर्यंन्तं जगत् स परितर्पयेत्॥”
प्रत्येक कार्य में आचमन का विधान है। आचमन से हम न केवल अपनी शुद्धि करते हैं अपितु
ब्रह्मा से लेकर तृण तक को तृप्त कर देते हैं।

आचमन विधि-
--------------
आचमन सदैव उत्तर,ईशान या पूर्व दिशा की ओर मुख कर करें। दक्षिण व पश्चिम दिशा की ओर मुख करके आचमन कदापि ना करें।

“ह्त्कण्ठतालुगाभिस्तु यथासंख्यं द्विजातय:।
 शुध्येरन् स्त्री च शूद्रश्च सकृत्स्पृष्टाभिरन्तत:॥”

आचमन के लिए जल इतना लें कि ब्राह्मण के ह्रदय तक,क्षत्रिय के कंठ तक, वैश्य के तालु तक व शूद्र एवं महिलाओं की जीभ तक ही जाए। हथेलियों को मोड़कर गाय के कान जैसा बना लें कनिष्ठा व अंगुष्ठ को अलग रखें। तत्पश्चात जल लेकर तीन बार निम्न मंत्र का उच्चारण करते हुए जल ग्रहण करें-
ॐ केशवाय नम:
ॐ नाराणाय नम:
ॐ माधवाय नम:
 ॐ  ह्रषीकेशाय नम:, बोलकर ब्रह्मतीर्थ (अंगुष्ठ का मूल भाग) से दो बार होंठ पोंछ्ते हुए हस्त प्रक्षालन करें (हाथ धो लें)। उपरोक्त विधि ना कर सकने की स्थिति में केवल दाहिने कान के स्पर्श मात्र से ही आचमन की विधि की पूर्ण मानी जाती है।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें