शुक्रवार, 26 सितंबर 2014

कृष्णभावनामृत


सेस;गनेस;महेस;दिनेस;सुरेसहु;जाहि निरंतर गावै।
जाहि अनादि;अनंत;अखंड;अछेद;अभेद;सुबेद बतावै॥
नारद से सुक व्यास रहे पचिहारे तु पुनि पार ना पावै।
ताहि अहीर की छोहरियां छछिया भर छाछ पे नाच नचावै॥

धूरि भरे अति सोहत स्याम जू तैसी बनी सिर सुन्दर चोटि।
खेलत खात फिरे अंगना पग पैंजनी बाजति पीरी कछोटि॥
वा छवि को "रसखान" बिलोकत वारत काम कलानिधि कोटी।
काग के भाग बड़े सजनी हरि हाथ सौं ले गयो माखन रोटी॥

या लकुटि अरु कामरिया पर राज तिहूं पुर को तजि डारौं।
आठहुं सिद्धि;नवौं निधि को सुख नंद की धेनु चराय बिसारौं॥
"रसखान" कबौं इन आंखन सौं ब्रज के बन बाग तडा़ग निहारौं।
कोटिक हूं कलधौत के धाम करील के कुंजन ऊपर वारौं॥


मानुस हौं तो वही "रसखान" बसौ मिलि गोकुल गांव के ग्वारन।
जों पशु हौं तो कहां बस मेरौ, चरौ नित नंद की धेनु मंझारन॥
पाहन हौं तो वही गिरि को जो धरयो कर छत्र पुरंदर कारन।
जो खग हों तो बसेरो करौं मिलि कालिंदी कूल कदम्ब की डारन॥

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