बुधवार, 12 अक्तूबर 2016

"उपनिषद् सूत्र"

"नायत्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन।
 यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनू ँ् स्वाम्॥"
-यह परब्रह्म परमात्मा न तो प्रवचन से; न बुद्धि से; न बहुत सुनने से ही प्राप्त हो सकता है। जिसको यह स्वीकार कर लेता है उसके द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है। यह परमात्मा उसके लिए अपने यथार्थ स्वरूप को प्रकट कर देता है।
-कठोपनिषद्


"श्रेयश्च प्रेयश्च मनुष्यमेतस्तौ सम्परीत्य विविनक्ति धीर:।
श्रेयो हि धीरोऽभि प्रेयसो वृणीते प्रेयो मन्दो योगक्षेमाद् वृणीते॥"
-श्रेय और प्रेय ये दोनों ही मनुष्य के सामने आते हैं; बुद्धिमान मनुष्य उन दोनों के स्वरूप पर भलीभाँति विचारकरके उनको पृथक्-पृथक् समझ लेता है। वह श्रेष्ठबुद्धि मनुष्य परम कल्याण के साधन को ही भोग साधन के अपेक्षा श्रेष्ठ समझकर ग्रहण करता है परन्तु मन्दबुद्धि वाला मनुष्य लौकिक योगक्षेम की इच्छा से भोगों के साधन रूप प्रेय को अपनाता है।
-कठोपनिषद्

एष सर्वेषु भूतेषु गूढोत्मा न प्रकाशते।
दृश्यते त्वग्रयया बुद्धया सूक्ष्मया सूक्ष्मदर्शिभि:॥
-कठोपनिषद् (१.३.१२)
अर्थ-वह सबका आत्मरूप परमपुरूष समस्त प्राणियों में रहता हुआ भी, माया के परदे में छिपा रहने के कारण सबके प्रत्यक्ष नहीं होता। केवल सूक्ष्मतत्वों को समझने वाले पुरुषों द्वारा ही अति सूक्ष्म तीक्ष्ण बुद्धि से देखा जाता है।

उत्तिष्ठ जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत।
क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्गं पथस्तत्कवयो वदन्ति॥
-कठोपनिषद् (१.३.१४)
अर्थ-उठो; जागो; श्रेष्ठ महापुरुषों को पाकर उस परब्रह्म परमेश्वर को जान लो। त्रिकालज्ञ ज्ञानीजन उस तत्वज्ञान के मार्ग को छुरे की तीक्ष्ण की हुई दुस्तर धार के सदृश दुर्गम बतलाते हैं॥

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