गुरुवार, 13 अक्तूबर 2016

धम्मपद सूत्र

कुम्भकूपं कायमिमं विदित्वा नगरूपमं चित्तमिदंठपेत्वा।
योजेथ मारंपंचायुधेन जितं च रक्खे अनिवेसिनोसिया॥
-धम्मपद (चित्तवग्ग...८)
अर्थ- हे योगीगण! क्षणभंगी देह को घट के समान मानकर तथा अपने मन को नगर के समान जानकर प्रज्ञा शस्त्र से संसार; शत्रु कामदेव के साथ घोर युद्ध करे। जीती हुई नवीन समाधि का सावधानी से प्रतिपालन करो। परन्तु उस समाधि में आसक्त न हो।

न परेसं विलोमानि न परेसं कताकतं।
अत्त्नोव अवेक्खेय्य कतानि अकतानि च ॥
-धम्मपद (पुप्फवग्ग...६)
अर्थ- दूसरों के पाप कर्म को न देखना, दूसरों का किया हुआ कर्म और न किये हुए कर्म का भी विचार नहीं करना चाहिये। अपने किये हुए कर्म और न किये हुए कर्म का ही विचार करना चाहिये।

यथापि रुचिरं पुप्फं वण्णवन्तं अगन्धकं।
एवं सुभासिता वाचा अफला होति अकृव्वतो॥
-धम्मपद (पुप्फवग्ग....७)
अर्थ- जैसे मनोहारी फूल सुगन्धि के बिना निष्प्रयोजन एवं अनुपयोगी होता है, वैसे सदुपदेश भी उत्तम आचरण एवं सद्व्यवहार के बिना निष्फल हो जाता है।

यथापि रुचिरं पुप्फं वण्णवतं सगन्धकं।
एवं सुभासिता वाचा सफला होति कुव्वतो॥
-धम्मपद (पुप्फवग्ग....८)
अर्थ-जैसे मनोहारी फूल में सुगन्ध व्याप्त होने से वह सबका आदरणीय होता है, वैसे सदुपदेश भी उत्तम आचरण करने से सफल होता है।

न पुप्फगन्धो पटिवातमेति न चन्दनं तग्गरमल्लिका या।
सतं च गंधो पटिवातमेति सब्बा दिसा सप्पूरिसो पवायति॥
-धम्मपद (पुप्फवग्ग....१०)
अर्थ-चन्दन,तगर और मल्लिका इत्यादि फूलों की सुगन्ध वायु से विपरीत नहीं जा सकती लेकिन सज्जनों का यश व कीर्ति वायु की गति के विपरीत सब दिशा में फैलता है।

दीघा जागरतो रत्ति दीघं सन्तस्स योजनं।
दीघो बालानं संसारो सद्धम्मं अविजानतं॥
-धम्मपद (बालवग्ग...१)
अर्थ-जागने वाले व्यक्ति के लिये रात्रि बड़ी मालूम होती है। थके हुए यात्री के लिए कम दूरी का मार्ग भी बहुत दूर मालूम होता है, वैसे ही मूर्खों के लिये संसारयात्रा बड़ी कठिन होती है।

चरंचे नाधिगच्छेय्य सेय्यं सदिसमत्तनो।
एक चरियं दल्हं कयिरा नत्थि वाले सहायता॥
-धम्मपद (बालवग्ग...२)
अर्थ-अपने समान या अपने से बढ़कर श्रेष्ठ मित्र की खोज करो। यदि न मिले तो अकेले ही दृढ़ता से विचरो, क्योंकि दुष्टजनों से मित्रता ठीक नहीं रहती।

योबालो मंचति बाल्यं पण्डितो वापि तेन सो।
बालो च पण्डितमानी स वे बालोति वुच्चति॥
-धम्मपद (बालवग्ग...४)
अर्थ-जो मूर्ख व्यक्ति अपनी मूर्खता को जानता है, वह पण्डित है। जो मूर्ख अपने को पण्डित मानता है, वही महामूर्ख है।

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