गुरुवार, 13 अक्तूबर 2016

होशपूर्ण जीवन धार्मिकता का लक्षण है

एक बार मैंने कार में बैठे एक शख़्स को देखा जो गेरूए रंग का कुर्ता पहने हुए था; कुर्ते  पर "ॐ" और गायत्री मन्त्र अंकित था। अगले ही क्षण उसने अपना हाथ बाहर निकाला और अंगुलियों में दबी सिगरेट का गुल भूमि पर गिरा दिया । मैंने सोचा हम कितनी मूर्च्छा; कितनी बेहोशी में अपना जीवन जीते हैं यह इसका छोटा सा उदाहरण मात्र है। मेरे देखे होश एकमात्र धार्मिकता का लक्षण है और होशपूर्ण व्यक्ति ही धार्मिक है। बेहोशी; मूर्च्छा अधार्मिकता है। हम सब दिन के चौबीसों घंटे बेहोशी में जी रहे हैं, बिल्कुल यन्त्रवत। इसीलिए समाज में इतनी अधार्मिकता है क्योंकि धार्मिक कृत्य भी बेहोशी में ही किए जा रहे हैं। यदि होशपूर्वक जीवन जाए तो मुक्ति हो जाती है। मैं पूर्ण विश्वास से कहता हूं कि होशपूर्वक यदि पापकर्म भी कर लिया जाए तो पाप से मुक्ति हो जाती है क्योंकि पापकर्म होते ही तब है जब व्यक्ति मूर्च्छित होता है, जागृति और पाप का सम्बन्ध है ही नहीं, ठीक उसी प्रकार जैसे अन्धकार और दीपक का। मूर्च्छा अन्धकार है और होश जागृति; जागरण। अभी-अभी नवरात्र का पर्व सम्पन्न हुआ है इसमें कई देवी पण्डालों में जाने का अवसर मिला वहां जो पूजा-पाठ करने वाले लोग थे उन्हें अन्य दिनों में भी कार्य करते देखा था, महद्आश्चर्य था...इतनी श्रद्धा, इतनी भक्ति, प्रणाम करने को मन किया किन्तु उन्हीं लोगों के कार्य नवरात्र समाप्त होते ही बिल्कुल परिवर्तित हो गये! कृत्रिमता धार्मिकता का लक्षण नहीं है। मेरे लिए होश का अर्थ है जीवन में प्रतिपल परमात्मा की मौजूदगी; उसके सामीप्य की अनुभूति करना। इस प्रकार जीवन जीना जैसे परमात्मा प्रतिपल आपके साथ, आपके निकट है। बस इतना सा होश सध जाए जीवन परिवर्तित हो जाता है। आज हमारे जीवन में कहीं भी परमात्मा की उपस्थिति का अहसास या आभास दिखाई नहीं देता तभी तो समाज में इतनी अधार्मिकता और मानव के कर्मों में इतना भ्रष्टाचार है। हमने परमात्मा को अपने अहंकार की तुष्टि का साधन मात्र बनाकर रख दिया है। मेरे देखे इस जगत् में परमात्मा ही एकमात्र साध्य है। जिसने साध्य को ही साधन बना लिया उससे भला क्या आशा की जा सकती है। हमने परमात्मा को एक सजावट की वस्तु की तरह अपने जीवन में सजा रखा है। उसके सामने हम मज़े से स्वच्छंद होकर वह सब करते हैं जो हमें रुचता है, इस बात की तनिक भी चिन्ता नहीं करते कि ईश्वर को क्या पसन्द है। ईश्वर के सामने झूठ बोलते हैं; छल-कपट करते हैं; लालच करते हैं; ईर्ष्या करते हैं; कुदृष्टि डालते हैं और सबसे बड़ा अपराध प्रतिपल अपने "मैं" के पोषण और दूसरों के शोषण में लगे रहते हैं। मेरे देखे बस एक होश सध जाए फिर किसी पूजा-पाठ किसी कर्मकाण्ड की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती होशपूर्वक जो किया जाता है वह पूजा बन जाता है, जो बोला जाता वह शास्त्र बन जाता है। अत: अपनी मूर्च्छा को तोड़ने का प्रयास करें और होशपूर्ण जीवन की ओर एक कदम बढ़ाएं। परमात्मा प्रतिपल आपके साथ है और सदैव रहेगा।
-ज्योतिर्विद पं. हेमन्त रिछारिया

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