शुक्रवार, 14 अक्टूबर 2016

काफ़िर हैं वो जो बन्दे नहीं हैं इस "लाम" के...

एक बार मुगल बादशाह शाहजहाँ ने दिल्ली में एक विराट मुशायरे का आयोजन किया। उसमे मुस्लिम ही नही अपितु हिन्दू कवियों ने भी भाग लिया। सर्वप्रथम गजलों एवं शेरों-सायरी का कार्यक्रम हुआ,पश्चात "समस्या-पूर्ति"का। 'समस्या-पूर्ति में कोई कवि स्व रचित एक पंक्ति अन्य कवियों को सुनाता हैं तथा उनसे उस पंक्ति से सन्दर्भ जमाते हुए अन्य पंक्तियाँ कहने का आह्वान करता हैं। एक मुस्लिम कवि ने 'समस्या-पूर्ति' के लिए निम्न पंक्ति कही-
"काफ़िर हैं वो, जो बंदे नही इस्लाम के"।
स्पष्ट रूप से संकेत हिंदूओ की ओर था। और उन्हें ही समस्या का समाधान करना था।
पंक्ति सुनकर जहाँ मुस्लिम कवियो में ख़ुशी की लहर फैल गई, वही हिन्दू कुछ दुविधा में पड़ गये। उनके द्वारा समस्या-पूर्ति न करने से इस्लाम धर्म के अनुयायी न होने से वे काफ़िर सिद्ध होते थे। ये जानबूझ कर किया गया अपमान था। कुछ हिन्दू कवि मन ही मन बौखला गये, कि कवि जगन्नाथ पंडित उठ खड़े हुए और ऊँचे स्वर में बोले--
इस "लाम" के मानिंद हैं,गेसू मेरे घनश्याम के।
काफ़िर हैं वो, जो बन्दे नहीं इस"लाम" के।।
यह सुनते ही उपस्थित हिन्दू जनसमूह ने बेहद प्रसन्न होकर तालियाँ बजना आरंभ कर दिया,क्योंकि पासा पलट गया था और उस मुस्लिम कवि को लेने के देने पड़ गये थे।
उपर्युक्त पंक्ति का भावार्थ निम्न था-"मेरे कृष्ण के बाल (गेसू) उर्दू अक्षर 'लाम 'की तरह तिरछे हैं। इस दुनिया में उनके इन बालों के जो भक्त नहीं,वे काफ़िर हैं।"
श्री कृष्ण के घुँघराले बाल हैं और उर्दू के अक्षर लाम का आकार घुँघराले बालों जैसा ही होता हैं।"

*विशेष- उर्दू में "ल" अक्षर को लाम कहा जाता है और "लाम"  ل   के आकार का होता है कृष्ण के बाल भी इसी तरह मुड़े हुए थे.

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