गुरुवार, 13 अक्तूबर 2016

भीड़ नहीं आनन्द हो कसौटी

मुझे यदा-कदा अनेक महापुरूषों,कथावाचकों व विद्वानों से भेंट का सुअवसर प्राप्त होता ही रहता है। क्षेत्र की समानता के कारण अक्सर मुलाकातें निजी हो जाया करती हैं। मैंने इन मुलाकातों में पाया है कि आजकल भीड़ व प्रचार विद्वत्ता की कसौटी बनता जा रहा है। ये विद्वत्तजन अपने निजी पलों में इन्हीं दो मुद्दों पर बातचीत करते नज़र आते हैं। उन्हें इस बात की महती चिन्ता रहती है कि उनकी कथा में भीड़ अन्य कथावाचकों की अपेक्षा कहीं कम तो नहीं हो रही या फ़लां व्यक्ति का कार्यक्रम वे केवल इस आधार पर असफ़ल मान लेते हैं कि वहां जनता की भीड़ कम थी। मुझे मन ही मन बड़ा आश्चर्य होता है कि भला भीड़ कैसे किसी धार्मिक कार्यक्रम की सफ़लता या असफ़लता की कसौटी हो सकती है। धार्मिक आयोजनों की सफ़लता की कसौटी तो आनन्द होना चाहिए। यदि एक व्यक्ति भी धार्मिक आयोजन में आनन्दित और प्रभु प्रेम में निमग्न हो गया तो आयोजन सफ़ल हो गया। मेरे देखे भीड़ की चिन्ता तो व्यापारी व दुकानदार करते हैं सन्त नहीं, यदि आप किसी ऐसे तथाकथित सन्त या कथावाचक को भीड़ की चिन्ता करते देखें तो समझ लीजिए आप सन्त के धोखे में किसी दुकानदार के पास पहुंच गए हैं। परमात्मा तक को विक्रय की वस्तु बना लेने वाले ये व्यापारीगण भला आपको क्या परमात्मा की प्राप्ति का मार्ग दिखा पाएंगे। अत: आध्यात्म की राह में तो बस प्रभु को ही अपना सारथि बना लीजिए फ़िर सब अपने से हो जाता है। वही आपको गुरू से भी मिलाएगा और मज़े की बात यह है कि फ़िर वही उस गुरू के माध्यम से स्वयं अपने आपको अर्थात गोविन्द को भी मिला देगा।

-ज्योतिर्विद पं. हेमन्त रिछारिया

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